बोनसाई
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हज़ारों बोनसाई उग गए हैं
जो छोटे-छोटे ख़्वाबों की पौध हैं
ये पौधे अब दरख़्तों में तब्दील हो चुकें हैं।
ये सदा हरे भरे नहीं रहते
मुरझा जाने को होते ही हैं
कि रहम की ज़रा-सी बदली बरसती है
वे ज़रा-ज़रा हरियाने लगते हैं
आख़िर ऐसा क्यों है?
-जेन्नी शबनम (21. 6. 2020)
फिर कुनमुनाकर सब जीने लगते हैं।
वे अक्सर अपने बौनेपन का प्रश्न करते हैं
आख़िर वे सामान्य क्यों न हुए, क्यों बोनसाई बन गए
ये कैसा रहस्य है?
ये ऐसे दरख़्त क्यों हुए
जो किसी को छाँव नहीं दे सकते।
फलने-फूलने-जीने के लिए हज़ार मिन्नतें करते हैं
फिर मौसम को तरस आता है
वे ज़रा-सी धूप और पानी दे देते हैं।
आख़िर ऐसा क्यों है?
क्यों बिन माँगे मौसम उन्हें कुछ न देता
क्यों लोग हँसते हैं उसके ठिगनेपन पर
बोनसाई होना उनकी चाहत तो न थी।
सब तक़दीर के तमाशे हैं
जो वे भुगतते हैं
रोज़ मर-मरकर जीते है
पर ख़्वाबों के ये बोनसाई
कभी-कभी तन्हाई में हँसते भी हैं।
कभी-कभी तन्हाई में हँसते भी हैं।
-जेन्नी शबनम (21. 6. 2020)
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