ज़िन्दगी भी ढलती है
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पीड़ा धीरे-धीरे पिघल, आँसुओं में ढलती है
वक़्त की पाबन्दी है, ज़िन्दगी भी ढलती है।
अजब व्यथा है, सुबह और शाम मुझमें नहीं
बस एक रात ही तो है, जो मुझमें जगती है।
चाहके भी समेट न पाई, तक़दीर अपनी
बामुश्किल बसर हो जो, ज़िन्दगी क्यों मिलती है।
मैं तो ठहरी रही, सदियों से ख़ुद में ही छुपके
वक़्त की बेबसी, सदियाँ बेतहाशा उड़ती है।
जाने क्यों हर रास्ता, मुझसे पीछे छूटा है
मैं अनजानी, ज़िन्दगी बेअख्तियार उड़ती है।
दिन की कहानी, मुमकिन ही कहाँ कि 'शब' बताए
रात ज़िन्दगी उसकी, रात की कहानी कहती है।
- जेन्नी शबनम (9. 4. 2021)
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