बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

326. जा तुझे इश्क़ हो (पुस्तक - 19)

जा तुझे इश्क़ हो

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तुम्हें आँसू नहीं पसंद   
चाहे मेरी आँखों के हों   
या किसी और के   
चाहते हो हँसती ही रहूँ   
भले ही वेदना से मन भरा हो,   
जानती हूँ, और चाहती भी हूँ   
तुम्हारे सामने तटस्थ रहूँ   
अपनी मनोदशा व्यक्त न करूँ  
लेकिन तुमसे बातें करते-करते   
आँखों में आँसू भर आते हैं   
हर दर्द रिसने लगता है,   
मालूम है मुझे   
तुम्हारी सीमाएँ, तुम्हारा स्वभाव   
और तुम्हारी आदतें  
अक्सर सोचती हूँ   
कैसे इतने सहज होते हो   
फ़िक्रमंद भी हो और   
बिंदास हँसते भी रहते हो,   
कई बार महसूस किया है   
मेरे दर्द से तुम्हें आहत होते हुए   
देखा है तुम्हें, मुझे राहत देने के लिए   
कई उपक्रम करते हुए,  
समझाते हो मुझे अक्सर     
इश्क़ से बेहतर है दुनियादारी   
और हर बार मैं इश्क़ के पक्ष में होती हूँ   
और तुम, हर बार अपने तर्क पर क़ायम,   
ज़िन्दगी को तुम अपनी शर्तों से जीते हो   
इश्क़ से बहुत दूर रहते हो   
या फिर इश्क़ हो न जाए   
शायद इस बात से डरे रहते हो,   
मुमकिन है, तुम्हें इश्क़   
वैसे ही नापसंद हो जैसे आँसू  
ग़ैरों के दर्द को महसूस करना और बात है   
दर्द को ख़ुद जीना और बात,   
एक बार तुम भी जी लो, मेरी ज़िन्दगी   
जी चाहता है   
तुम्हें शाप दे ही दूँ-   
''जा तुझे इश्क़ हो!" 

- जेन्नी शबनम (29. 2.  2012) 
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