कभी न मानूँ...
जी चाहता है
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विद्रोह कर दूँ
अबकी जो रूठूँ
कभी न मानूँ
मनाता तो यूँ भी नहीं कोई
फिर भी बार-बार रूठती हूँ
हर बार स्वयं ही मान जाती हूँ
जानती हूँ कि मेरा रूठना
कोई भूचाल नहीं लाता
न तो पर्वत को पिघलाता है
न प्रकृति कर जोड़ती है
न जीवन आह भरता है
देह की सभी भंगिमाएँ
यथावत रहती है
दुनिया सहज चलती है
मन रूठता है
मन टूटता है
मन मनाता है
मन मानता है
और ये सिर्फ मेरा मन जानता है
हर बार रूठ कर
खुद को ढ़ाढ़स देती हूँ
कि शायद इस बार
किसी को फर्क पड़े
और कोई आकार मनाये
और मैं जानूँ कि
मैं भी महत्वपूर्ण हूँ
पर अब नहीं
अब तो यम से ही मानूँगी
विद्रोह का बिगुल
बज उठा है !
- जेन्नी शबनम (मई 24, 2012)
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