बुधवार, 29 जून 2011

259. आत्मीयता के क्षण

आत्मीयता के क्षण

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आत्मीयता के ये क्षण
अनकहे भले ही रह जाए
अनबूझे नहीं रह सकते। 

नहीं-नहीं, यह भ्रम है
निरा भ्रम, कोरी कल्पना
पर नहीं, उन क्षणों को कैसे भ्रम मान लूँ
जहाँ मौन ही मुखरित होकर
सब कुछ कह गया था।  

शाम का धुँधलका
मन के बोझ को और भी बढ़ा देता है
मंज़िलें खो गई हैं, राहें भटक गई हैं
स्वयं नहीं मालूम, जाना कहाँ है। 

क्या यूँ निरुद्देश्य भटकन ही ज़िन्दगी है?
क्या कोई अंत नहीं?
क्या यही अंत है?
क्या कोई हल नहीं?
क्या यही राह है?
कब तक इन अनबूझ पहेलियों से घिरे रहना है?

काश!
आत्मीयता के ये अनकहे क्षण
अनबूझे ही रहते।  

- जेन्नी शबनम (25. 1. 2009)
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