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उसका प्यार, उसकी नफ़रत
उसका आरोप, उसका प्रत्यारोप
उसकी प्रताड़ना, शिकायत
उसकी दया, क्षमा
उसका परिहास, उपहास
उसके बन्धन, क्रन्दन
उसका सच, झूठ
कुछ समझ नहीं आता।
यह कैसा चरित्र है
जो दूसरों के आँसू में हँसी तलाशता है
दूसरों को नीचा गिराकर दम्भ से हुंकारता है।
वह मानता है
वह सर्वश्रेष्ठ है
ईश्वर की संतान है
चाँद-तारे, धरती-आकाश
पूरे विश्व की पहचान है
उससे बेहतर कोई नहीं
अगर उसे कोई बेहतर लग गया
तो उसके सम्मान पर वह इतनी चोट करेगा
कि दूसरा आत्मसमर्पण कर दे
या आत्मविश्वास खो दे
या हीनता का शिकार होकर
उसकी तरह बीमार हो जाए
या पर-कटे पंछी की तरह छटपटाए
और इन सबसे उसकी बाँछें खिल जाती हैं
उसे मिलती है बेइन्तिहा ख़ुशी।
यह आत्ममुग्धता क्या है?
क्या इसका कोई ईलाज है?
शायद नहीं!
नार्सिसिस्ट पर दया की जाए
या जान बचाकर पलायन करना उचित है?
दिमाग़ शून्य हो जाता है
यह कैसा चक्रव्यूह है
जिससे बाहर आने की राहें तो हैं
मगर इतनी कँटीली
कि तन-मन दोनों छलनी होंगे
न जीवन जीते बनेगा
न मरने की हिम्मत बचेगी।
या अल्लाह!
क्यों बनाता है तू ऐसा मानव?
ये नार्सिसिस्ट
न किसी से प्रेम कर सकते
न किसी की हत्या
जीवनभर दूसरों को तड़पाकर
आनन्दित होते हैं।
मुक्ति का कोई उपाय नहीं।
-जेन्नी शबनम (1.1.2023)
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