कैसे बनूँ शायर
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मैं नहीं हूँ शाइर
जो शब्दों को पिरोकर, कोई ख़्वाब सजाऊँ
नज़्मों और ग़ज़लों में, दुनिया बसाऊँ
मुझको नहीं दिखता, चाँद में महबूब
चाँद दिखता है यूँ, जैसे रोटी हो गोल
मैं नहीं हूँ शाइर, जो बस गीत रचूँ
सारी दुनिया को भूल
प्रिय की बाहों को जन्नत कहूँ।
मुझको दिखती है, ज़िन्दगी की लाचारियाँ
पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ
क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
सरेआम बिक जाती, मिट जाती किसी माँ की दुलारियाँ
ख़ुद को महफ़ूज़ रखने में नाकामयाब कलियाँ
मुझे दिखता है, सूखे सीने से चिपका मासूम
और भूख से कराहती उसकी माँ
वैतरणी पार कराने के लिए, क़र्ज़ में डूबा किसी बेवा का बेटा
और वो भी, जिसे आरक्षण नाम के दैत्य ने कल निगल लिया
क्योंकि उसकी जाति, उसका अभिशाप थी
और हर्जाने में उसे अपनी ज़िन्दगी देनी पड़ी।
कैसे सोचूँ कि ज़िन्दगी एक दिन
सुनहरे रथ पर चलकर, पाएगी सपनों की मंज़िल
जहाँ दुःख दर्द से परे कोई संसार है
दिखता है मुझे, किसी बुज़ुर्ग की झुर्रियों में
वक़्त की नाराज़गी का दंश
अपने कोखजने से मिले दुत्कार और निर्भरता का अवसाद
दिखता है मुझे, उनका अतीत और वर्तमान
जो अक्सर मेरे वर्तमान और भविष्य में तब्दील हो जाता है।
मन तो मेरा भी चाहता है
तुम्हारी तरह शाइर बन जाऊँ
तुम्हारी तरह शाइर बन जाऊँ
प्रेम-गीत रचूँ और ज़िन्दगी बस प्रेम ही प्रेम हो
पर तुम्हीं बताओ, कैसे लिखूँ तुम्हारी तरह शाइरी
तुमने तो प्रेम में हज़ारों नज़्में लिख डाली
प्रेम की परकाष्ठा के गीत रच डाले
निर्विरोध, अपना प्रेम-संसार बसा लिया
मैं किसके लिए लिखूँ प्रेम-गीत?
नहीं सहन होता बार-बार हारना, सपनों का टूटना
छले जाने के बाद फिर से उम्मीद जगाना
डरावनी दुनिया को देखकर
आँखें मूँद सो जाना और सुन्दर सपनों में खो जाना।
मेरी ज़िन्दगी तो बस यही है कि
लोमड़ी और गिद्धों की महफ़िल से बचने के उपाय ढूँढूँ
अपने अस्तित्व के बचाव के लिए
साम, दाम, दंड, भेद अपनाते हुए
अपनी आत्मा को मारकर
इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में, रोज़-रोज़ मरूँ
मैं शाइर नहीं, बन पाना मुमकिन भी नहीं
तुम ही बताओ, कैसे बनूँ मैं शाइर?
कैसे लिखूँ?
प्रेम या ज़िन्दगी!
- जेन्नी शबनम (12. 5. 2012)
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