मुट्ठी से फिसल गया
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निःसंदेह बीता कल नहीं लौटेगा
जो बिछड़ गया अब नहीं मिलेगा
फिर भी रोज़-रोज़ बढ़ती है आस
कि शायद मिल जाए वापस
जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया।
ख़ुशियों की ख़्वाहिश ही दुःखों की फ़रमाइश है
पर मन समझता नहीं हर पल ख़ुद से उलझता है
हर रोज़ की यही व्यथा
कौन सुने इतनी कथा?
वक़्त को दोष देकर
कोई कैसे ख़ुद को निर्दोष कहेगा?
क्यों दूसरों का लोर-भात एक करेगा?
बहाने क्यों?
कह दो कि बीता कल शातिर खेल था
अवांछित सम्बन्धों का मेल था
जो था सब बेकार था, अविश्वास का भण्डार था
अच्छा हुआ कि बन्द मुट्ठी से फिसल गया।
अमिट दूरियों का अन्तहीन सिलसिला है
उम्मीदों के सफ़र में आसमान-सा सन्नाटा है
पर अतीत के अवसाद में कोई कबतक जिए
कितने-कितने पीर मन में लेके फिरे
वक़्त भी वही उसकी चाल भी वही
बरज़ोरी से उससे छीननी होगी खुशियाँ।
नहीं करना है अब शोक
साथ चलते-चलते, चंद क़दमों का फ़ासला
मीलों में बढ़ गया
रिश्ते-नाते नेह-बन्धन मन की देहरी में ढह गया
देखते-देखते सब, बन्द मुट्ठी से फिसल गया।
- जेन्नी शबनम (31. 12. 2020)
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