सोमवार, 30 सितंबर 2019

629. साँझ (साँझ पर 10 हाइकु) पुस्तक - 109,110

साँझ 

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1.   
साँझ पसरी   
''लौट आ मेरे चिड़े!''   
अम्मा कहती।   

2.   
साँझ की वेला   
अपनों का संगम   
रौशन नीड़।   

3.   
क्षितिज पर   
सूरज आँखें मींचे   
साँझ निहारे।   

4.   
साँझ उतरी   
बेदम होके दौड़ी   
रात के पास।   

5.   
चाँद व तारे   
साँझ की राह ताके   
चमकने को।   

6.   
धुँधली साँझ   
डूबता हुआ सूर्य   
तप से जागा।   

7.   
घर को चली   
साँझ होने को आई   
धूप बावरी।   

8.   
नभ से आई   
उतरकर साँझ   
दीए जलाती।   

9.   
गगन हँसा   
बेपरवाह धूप   
साँझ से हारी।   

10.   
संध्या उदास   
क्या करे दीया बाती   
कोई न साथ।   

- जेन्नी शबनम (28. 8. 2019)   
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गुरुवार, 26 सितंबर 2019

628. गुम सवाल (क्षणिका)

गुम सवाल   

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ज़िन्दगी जब भी सवालों में उलझी   
मिल न पाया कोई माकूल जवाब   
फिर ठठाकर हँस पड़ी   
और गुम कर दिया सवालों को   
जैसे वादियों में कोई पत्थर उछाल दे।   

- जेन्नी शबनम (26. 9. 2019)
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गुरुवार, 19 सितंबर 2019

627. तमाशा

तमाशा 

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सच को झूठ और झूठ को सच कहती है दुनिया   
इसी सच-झूठ के दरमियाँ रहती है दुनिया   
ख़ून के नाते हों या क़िस्मत के नाते   
फ़रेब के बाज़ार में सब ख़रीददार ठहरे   
सहूलियत की पराकाष्ठा है   
अपनों से अपनों का छल   
मन के नातों का क़त्ल   
कोखजनों की बदनीयती   
सरेबाज़ार शर्मसार है करती   
दुनिया को सिर्फ़ नफ़रत आती है   
दुनिया कब प्यार करती है   
धन-बल के लोभ में इंसानियत मर गई है   
धन के बाज़ार में सबकी बोली लग गई है   
यक़ीन और प्रेम गौरैया-सी फ़ुर्र हुई   
तमाम जंगल झुलस गए   
कहाँ नीड़ बसाए परिन्दा   
कहाँ तलाशे प्रेम की बगिया   
झूठ-फ़रेब के चीनी माँझे में उलझके   
लहूलुहान हो गई है ज़िन्दगी   
ऐसा लगता है खो गई है ज़िन्दगी   
देखो मिट रही है ज़िन्दगी   
मौत की बाहों में सिमट रही है ज़िन्दगी   
आओ-आओ तमाशा देखो  
रिश्ते नातों का तमाशा देखो   
पैसों के खेल का तमाशा देखो   
बिन पैसों का तमाशा देखो।   

- जेन्नी शबनम (19. 9. 2019)   
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शनिवार, 14 सितंबर 2019

626. क्षणिक बहार

क्षणिक बहार   

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आज वह ख़ूब चहक रही है   
मन ही मन में बहक रही है 
साल भर से जो वो कच्ची थी 
उस का दिन है तो पक रही है। 

आज वह निरीह नहीं सबल है 
आज वह दुखी नहीं मगन है 
आज उसके नाम धरती है 
आज उसका ही ये गगन है। 

जहाँ देखो सब उसे बुला रहे हैं 
हर महफ़िल में उसे सजा रहे हैं 
किसी ने क्या खूब वरदान दिया है 
एक पखवारा उसके नाम किया है। 

आज सज-धज के निकलेगी 
आज बहुरिया-सी दमकेगी 
हर तरफ़ होगी जय-जयकार 
हर कोई दिखाए अपना प्यार 
हर किसी को इसका ख़याल   
परम्परा मनेगी सालों साल। 

पखवारा बीतने पर मलीन होगी 
धीरे-धीरे फिर ग़मगीन होगी 
मंच पर आज जो बैठी है 
फ़र्श पर तब आसीन होगी 
क्षणिक बहार आज आई है 
फिर साल भर अँधेरी रात होगी। 

हर साल आता है यह त्योहार 
एक पखवारे का जश्ने-बहार 
उस हिन्दी की परवाह किसे है 
राजभाषा तक सिकोड़ा जिसे है 
जो भी अब संगी साथी इसके हैं 
सालों भर साथ-साथ चलते हैं। 

भले अंग्रेज़ी सदा अपमान करे 
हिन्दी का साथ हमसे न छूटे 
प्रण लो हिन्दी बनेगी राष्ट्रभाषा 
यह है हमारा अधिकार और भाषा 
हिन्दी को हम से है बस यही आशा 
हम देंगे नया जीवन नयी परिभाषा। 

- जेन्नी शबनम (14. 9. 2019) 
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मंगलवार, 3 सितंबर 2019

625. परम्परा (क्षणिका)

परम्परा   

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मन के अवसाद को   
चूड़ियों की खनक, बिन्दी के आकार   
होठों की लाली और मुस्कुराहट में दफ़नाकर 
खिलखिलाकर दूर करना परम्परा है,   
स्त्रियाँ परम्परा बड़े मन से निभाती हैं।   

- जेन्नी शबनम (1. 9. 2019)   
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