आग मुझे खल रही है
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एक आग में तमाम उम्र
जलती, तपती, झुलसती रही
आह निकले, पर सब्र किया
ज़ख़्म दुःखे, पर हँस दिया
आसमाँ से वर्षा की गुहार लगाई
उसने आग बरसाई
हवा से नमी उधार माँगी
उसने लावा की तपिश भेजी
धूप से छाँव की गुज़ारिश की
उसने आग धरती पर उतारी
उम्र से कुछ सुखद पलों की याचना की
उसने तमाम पलों को चिन्दी-चिन्दी कर बिखेर दिया।
न जाने क्यों अब ये सब चुप हैं
मेरी चाहतें तंग हैं या
मेरी तक़दीर की मुझसे जंग है
सुकून के एक पल भी मिलने नहीं आते हैं
संवेदना से भरे हाथ मुझ तक नहीं पहुँचते हैं।
अपनी मुट्ठियों में ख़ुद को समेटे
सुलग रही हूँ, दहक रही हूँ
अग्नि धीरे-धीरे बुझ रही हूँ
सुलग रही हूँ, दहक रही हूँ
अग्नि धीरे-धीरे बुझ रही हूँ
चिनगारी अब भी सुलग रही है
मेरी ज़िन्दगी अब भी जल रही है
मेरी ज़िन्दगी अब भी जल रही है
और ये आग मुझे खल रही है।
- जेन्नी शबनम (16. 11. 2024)
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