गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

92. ये बस मेरा मन है / ye bas mera mann hai (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 46)

ये बस मेरा मन है

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ज़िन्दगी के अर्थ मिलते नहीं
खो से गए हैं जैसे सब कहीं
ब्रह्माण्ड की असीम शून्यता में,
अधर में लटके हैं शब्द, 
एहसासों का अधैर्य स्पंदन
क्यों नहीं दौड़े चले आते पास मेरे?
हर उस दौर से तो गुज़रती हूँ
जहाँ रंगीन ख़ूबसूरत धरती है 
सपनीला-सा सुन्दर आसमान है
आह! ये कैसा शोर है?
अरे! वहाँ तो सन्नाटा है!
उफ़! नहीं ये बस मेरा मन है!

- जेन्नी शबनम (29. 10. 2009)
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ye bas mera mann hai

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zindgi ke arth milte nahin
kho se gaye hain jaise, sab kahin
brahmaand kee aseem shunyata mein,
adhar mein latke hain shabd
ehsaason ka adhairya spandan
kyun nahin daude chale aate paas mere?
har us daur se to gujarti hun
jahan rangeen khubsurat dharti hai
sapneela-sa sundar aasmaan hai.
aah! ye kaisa shor hai?
are! wahan to sannata hai!
uff! nahin ye bas mera mann hai!

- Jenny Shabnam (29. 10. 2009)
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2 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

मन का सन्नाटा और उससे भागती मन की परछाईं .......
कितने सही एहसासों को शब्द दिए हैं,
बहुत ही बढिया

नीरज गोस्वामी ने कहा…

उफ़ ! नहीं ये बस मेरा मन है !!!
मन को नए आयाम देती इस अद्भुत रचना के लिए आपको कोटिश बधाई...लिखती रहें...
नीरज