विदा अलविदा
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कुछ लम्हे साथ जीती, ये कैसी ख़्वाहिश होती
दूर भी तो न हुई कभी, फिर ये चाह क्यों होती।
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कुछ लम्हे साथ जीती, ये कैसी ख़्वाहिश होती
दूर भी तो न हुई कभी, फिर ये चाह क्यों होती।
ख़त में सुने उनके नग़्में, पर धुन पराई है लगती
वो निभाते उम्र के बंधन, ज़िन्दगी यूँ नहीं ढलती।
इश्क में मिटना लाज़िमी, क्यों है ये दस्तूर ज़रूरी
इश्क में जीना ज़िन्दगी, कब जीता कोई ज़िन्दगी।
विदा अलविदा की कहानी, रोज़ कहते वो मुँह-ज़बानी
कल अलविदा मैं कह गई, फिर समझे वो इसके मानी।
हिज्र की एक रात न आई, न वस्ल ने लिखी कहानी
'शब' ओढ़ती रोज़ चाँदनी, पर रात अमावास की होती।
- जेन्नी शबनम (19. 7. 2010)
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vida alvida
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kuchh lamhe saath jiti, ye kaisi khwaahish hoti
door bhi to na hui kabhi, phir ye chaah kyon hoti.
khat mein sune unke nagmein, par dhun paraai hai lagti
vo nibhaate umrra ke bandhan, zindagi yun nahin dhalti.
ishq mein mitna laazimi, kyon hai ye dastoor zroori
ishq mein jina zindagi, kab jita koi zindagi.
vida alvida ki kahaani, roz kahte vo moonh-zabaani
kal alvida main kah gai, phir samjhe vo iske maani.
hijrra ki ek raat na aai, na vasl ne likhi kahaani
'shab' odhti roz chaandni, par raat amaavas ki hoti.
- Jenny Shabnam (19. 7. 2010)
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6 टिप्पणियां:
Bahut Khub Jenny Di...!
शानदार पोस्ट
बहुत अच्छी लगी यह रचना...
वाह!! बेहतरीन!
हिज़्र की एक रात न आई
न वस्ल ने लिखी कहानी,
''शब'' ओढती रोज़ चांदनी
पर रात अमावास की होती !
bahut hi badhiyaa
@ prreti,
tumko yahan dekh achha laga, shukriya.
@ jandunia,
bahut aabhar.
@ mahfooz sahab,
bahut aabhari hun.
@ sameer sir,
bahut bahut shukriya.
@ rashmi ji,
mann se aabhar aapka.
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