पगडंडी और आकाश
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एक सपना बुन कर
उड़ेल देना मुझ पर मेरे मीत
ताकि सफ़र की कठिन घड़ी में
कोई तराना गुनगुनाऊँ,
साथ चलने को न कहूँगी
पगडंडी पर तुम चल न सकोगे
उस पर पाँव-पाँव चलना होता है
और तुमने सिर्फ़ उड़ना जाना है।
क्या तुमने कभी बटोरे हैं
बग़ीचे से महुआ के फूल
और अंजुरी भर-भर
ख़ुद पर उड़ेले हैं वही फूल
क्या तुमने चखा है
इसके मीठे-मीठे फल
और इसकी मादक ख़ुशबू से
बौराया है तुम्हारा मन?
क्या तुमने निकाले हैं
कपास से बिनौले
और इसकी नर्म-नर्म रूई से
बनाए हैं गुड्डे गुड्डी के खिलौने
क्या तुमने बनाई है
रूई की छोटी-छोटी पूनियाँ
और काते हैं, तकली से महीन-महीन सूत?
अबके जो मिलो तो सीख लेना मुझसे
वह सब, जो तुमने खोया है
आसमान में रहकर।
इस बार के मौसम ने बड़ा सताया है मुझको
लकड़ी गीली हो गई, सुलगती नहीं
चूल्हे पर आँच नहीं, जीवन में ताप नहीं
अबकी जो आओ, तो मैं तुमसे सीख लूँगी
ख़ुद को जलाकर भाप बनना
और बिना पंख आसमान में उड़ना।
अबकी जो आओ
एक दूसरे का हुनर सीख लेंगे
मेरी पगडंडी और तुम्हारा आसमान
दोनों को मुट्ठी में भर लेंगे
तुम मुझसे सीख लेना
मिट्टी और महुए की सुगंध पहचानना
मैं सीख लूँगी
हथेली पर आसमान को उतारना
तुम अपनी माटी को जान लेना
और मैं उस माटी से
बसा लूँगी एक नयी दुनिया
जहाँ पगडंडी और आकाश
कहीं दूर जाकर मिल जाते हों।
- जेन्नी शबनम (18. 3. 2016)
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4 टिप्पणियां:
बेहतरीन काव्य , विश्लेषणों का प्रयोग और भी स्खूबसूरत बना रहा है काव्य को
अनुपम प्रस्तुति
sundar..
बहुत सुन्दर ...
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