अँधेरा
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उम्र की माचिस में ख़ुशियों की तीलियाँ
एक रोज़ सारी जल गईं, डिबिया ख़ाली हो गई
मैं आधे पायदान पर खड़ी होकर
हर रोज़ ख़ाली डिब्बी में तीलियाँ ढूँढती रही
दीये और भी जलाने होंगे, जाने क्यों सोचती रही?
भ्रम में जीने की आदत गई नहीं
हर शब मन्नत माँगती रही, तीलियाँ तलाशती रही
पर डिब्बी ख़ाली ही रही, ज़िन्दगी निबटती-मिटती रही
जो दीये न जले, फिर जले ही नहीं
उम्र की सीढ़ियों पे अब अँधेरा है।
- जेन्नी शबनम (18. 1. 2018)
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7 टिप्पणियां:
Waah !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20-01-2018) को "आगे बढिए और जिम्मेदारी महसूस कीजिये" (चर्चा अंक-2854) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
खुशियों की तीलियाँ ख़त्म होने के बाद इंसान खाली हो जाता है अवसाद में चला जाता है ...
इन अंधेरों से बाहर आने का प्रयास करना होगा ... तीलियों को सृजन करना होगा ...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, छोटी सी प्रेम कहानी “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर
Bahut sunder rachna...saty ka darpan
सुन्दर रचना
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