घात
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1.
घात
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सपने और साँसें दोनों नज़रबंद हैं
न जाने कौन घात लगाए बैठा हो
ज़रा-सी चूक और सब ख़त्म।
2.
कील
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मन के नाज़ुक तहों में
कभी एक कील चुभी थी
जो बाहर न निकल सकी
वह बारहा टीस देती है
जब-जब दूसरी नई कील
उसे और अंदर बेध देती है।
3.
काँटे
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तमाम उम्र ज़िन्दगी से काँटे छाँटती रही
ताकि ज़िन्दगी बस फूल ही फूल हो
बिना चुभे एक भी काँटा अलग न हुआ
हर बार चुभता, ज़ख्म देता, रूलाता
धीरे-धीरे फूलों का खिलना बंद हुआ
रह गए बस काँटे ही काँटे
अब इसे छाँटना क्या।
4.
जल गए
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वक़्त की टहनी पर रिश्तों के फूल खिले
कुछ टिके, कुछ झरे, कुछ रुके, कुछ बढे
जो टिके, वे सँभल न सके
जो झरे, वे झुलस गए
ज़िन्दगी आग का दरिया है
वक़्त के साथ सब जल गए
वक़्त के साथ सब ढल गए।
5.
साथ
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हम समझते थे
वक़्त पर साथ मेरे सब खड़े होंगे
ताल्लुकात के रंग
वक़्त ने बहुत पहले ही दिखा दिए।
6.
हिसाब
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तमाम उम्र हिसाब लगाते रहे
क्या पाया क्या न पाया
फ़ेहरिस्त तो बनी बड़ी लम्बी
मगर सिर्फ़ कुछ न पाने की।
7.
गुज़र गया
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सूखे पत्तों-सा सूखा मन
बिखरा पड़ा, मानो पतझड़
आस की ऊँगली थामे
गुज़र गया, तमाम जीवन।
8.
परिहास
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संबंधों की पृष्ठभूमि पर
भाव लिखूँ, अभाव लिखूँ, प्रभाव लिखूँ
या तहस-नहस होते नातों पर
परिहास लिखूँ।
9.
माँग
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हर लम्हा वक़्त ने है छीना
सारी उम्र पे कब्ज़ा है
अब कुछ भी तो शेष नहीं
वक़्त अभी भी माँग रहा
मैं मानूँगी आदेश नहीं
अब कुछ भी तो शेष नहीं।
10.
रूह
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एक रूह की तलाश में कितने ही पड़ाव मिले
पर कहीं ठौर न मिला कहीं ठहराव न मिला
मन का सफ़र ख़त्म नही होता
रूहों का नगर जाने कहाँ होता है?
रूहें शायद सिर्फ़ आसमान में बसती हैं।
- जेन्नी शबनम (20. 8. 2020)
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8 टिप्पणियां:
बहुत सु न्दर सृ जन
बहुत बढ़िया
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (२२-०८-२०२०) को 'जयति-जय माँ,भारती' (चर्चा अंक-३८०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
वाह!!!!
एक से बढ़कर एक लाजवाब क्षणिकाएं
बहुत ही सुन्दर।
बहुत भावपूर्ण!
बहुत सुंदर क्षणिकाएं।
बहुत सुंदर
हर क्षणिका अपने नए अंदाज़ के रँग की छींटे बिखेर रही है ... मन को भेद रही है ...
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