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शनिवार, 1 मई 2021

719. कोरोना (5 कविता)

कोरोना 

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1. 
ओ कोरोना (कोरोना- नवधा-198) 
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ओ कोरोना!   
है कैसा व्यापारी तू   
लाशों का करता व्यापार तू   
और कितना रुलाएगा   
कब तक यूंँ तड़पाएगा   
हिम्मत हार गया संसार   
नतमस्तक सारा संसार   
लाशों से ख़ज़ाना तूने भर लिया   
हर मौत का इल्ज़ाम तूने ले लिया   
पर यम भी अब घबरा रहा   
बार-बार समझा रहा   
तेरे ख़ज़ाने के लिए बचा न स्थान   
मरघट बन गया स्वर्ग का धाम   
ओ कोरोना!   
ढूँढ कोई दूजा संसार।   

2. 
ओ विषाणु 
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ओ विषाणु!   
सुन, तुझे रक्त चाहिए   
आ, आकर मुझे ले चल!   
मैं रावण-सी बन जाती हूँ   
हर एक साँस मिटने पर   
ढेरों बदन बन उग जाऊँगी   
तू अपनी क्षुधा मिटाते रहना   
पर विनती है   
जीवन वापस दे उन्हें   
जिन्हें तू ले गया छीनकर   
मैं तैयार हूँ   
आ मुझे ले चल!   

3. 
ओ नरभक्षी 
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ओ नरभक्षी!   
हर मन श्मशान बनता जा रहा है   
पर तू शान से भोग करता जा रहा है   
कैसे न काँपते हैं तेरे हाथ   
जब एक-एक साँस के लिए   
तुझसे मिन्नत करते हैं करोड़ों हाथ   
और तेरा खूनी पंजा   
लोगों को तड़पाकर   
नोचते-खसोटते हुए   
अपने मुँह का ग्रास बनाता है   
अब बहुत भोग लगाया तूने   
जा, सदा के लिए अब जा   
अन्तरिक्ष में विलीन हो जा!   

4. 
ओ रक्त पिपासु 
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ओ रक्त पिपासु!   
तेरे खूनी पंजे ने   
हर मन, हर घर पर   
चिपकाए हैं इश्तेहार-   
''तुझे जो भाएगा, तू ले जाएगा   
दीप, शंख, हवन, गो कोरोना गो से   
तू नहीं डरता   
सब तरफ़ लाल रक्त बहाएगा''   
रोते, चीखते, काँपते, छटपटाते लोग   
तुझे बहुत भाते हैं   
पर अब तो रहम कर   
जब कोई न होगा   
तू किसका भोग लगाएगा।   

5. 
ओ पिशाच 
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ओ पिशाच!   
अब दया कर   
चला जा तू अपने घर   
हम सब हार गए   
तेरी शक्ति मान गए   
ज़ख़्म दिए तूने गहरे सबको   
भला कौन बचा, तू खोजे जिसको   
घर-घर में मातम पसरा   
कौन ताके किसका असरा   
जा, तू चला जा   
अब कभी न आना   
बची-खुची, आधी-अधूरी दुनिया से   
हम काम चला लेंगे   
जिनको खोया उनकी यादों में   
जीवन बिता लेंगे।   

-जेन्नी शबनम (30.4.2021) 
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रविवार, 18 अप्रैल 2021

717. प्रेम में होना

प्रेम में होना   

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प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक   
बदन के घेरों में या मन के फेरों में?   
सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है   
या स्वयं का बोध होना प्रेम है।
   
अनकहा प्रेम भी होता है   
न मिलाप, न अधिकार   
पर प्रेम है कि बहता रहता है   
अविरल और अविचलित।
    
प्रेम की परिभाषाएँ ढेरों गढ़ी गईं   
पर सबसे सटीक कोई नहीं   
अपने-अपने मन की आस्था   
अपने-अपने प्रेम की अवस्था। 
  
प्रेम अक्सर पा तो लिया जाता है   
पर वह लेन-देन तक सिमट जाता है   
हम सभी भूल गए हैं प्रेम का अर्थ   
लालसा में भटकता जीवन है व्यर्थ  
प्रेम का मूल तत्त्व बिसर गया है   
स्वार्थ की परिधि में प्रेम बिखर गया है। 
   
प्रेम पाया नहीं जाता 
प्रेम जबरन नहीं होता   
प्रेम किया नहीं जाता 
प्रेम में रहा जाता है   
प्रेम जीवन है   
प्रेम जिया जाता है।  

-जेन्नी शबनम (18.4.2021)
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