लम्बी सदी बीत रही है
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सीली-सीली-सी पत्तियाँ सुलग रही हैं
जैसे दर्द की एक लम्बी सदी धीरे-धीरे गुज़र रही है
तपन जेठ की झुलसाती गर्म हवाएँ
फिर भी पत्तियाँ सील गईं
ज़िन्दगी भी ऐसे ही सील गई
धीरे-धीरे सुलगते-सुलगते ज़िन्दगी अब राख बन रही है
दर्द की एक लम्बी सदी जैसे बीत रही है।
- जेन्नी शबनम (27. 4. 2011)
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सीली-सीली-सी पत्तियाँ सुलग रही हैं
जैसे दर्द की एक लम्बी सदी धीरे-धीरे गुज़र रही है
तपन जेठ की झुलसाती गर्म हवाएँ
फिर भी पत्तियाँ सील गईं
ज़िन्दगी भी ऐसे ही सील गई
धीरे-धीरे सुलगते-सुलगते ज़िन्दगी अब राख बन रही है
दर्द की एक लम्बी सदी जैसे बीत रही है।
- जेन्नी शबनम (27. 4. 2011)
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7 टिप्पणियां:
"सीली-सीली पत्तियाँ
सुलग रही है
जैसे दर्द की एक लम्बी सदी
धीरे-धीरे
गुज़र रही है,
तपन जेठ की
झुलसाती गर्म हवाएँ
फिर भी पत्तियाँ सील गईं"दर्द की लम्बी नदी की कसक और सीली पत्तियों का सुलगना दोनों में अद्भुत साम्य है । जीवन के विभिन्न अनुभव और विरोधाभासों को आपने मुखरित कर दिया है।
अनंत पीड़ा ..अच्छी रचना
लंबी सदी बीत रही है-इस कविता के एक-एक अल्फाज मन के संवेदनशील तारों को झंकृत कर गए।जिसका तन और मन सुंदर होता है इसके विचार भी सुंदर होते है ।बहुत ही सुंदर भावों से पिरोई गयी कविता के लिए आपका बहुत-बहुत आभार।
"दीपक की तरह खुद को जलाते रहे हैं हम,
गैरों की जिंदगी को सजाते रहें हैं हम।"
मेरे पोस्ट पर आपका बेसव्री से इंतजार गहेगा।
धन्यवाद।
MAM AAJ KE SAMY KA SACH HAI AAPKI YE KAVITA. DHANYWAD
पीडा का मार्मिक चित्रण्।
bhut bhaavpur aur gahraayi hai apki rachna me...
ज़िन्दगी भी ऐसे हीं सील गई,
धीरे धीरे सुलगते सुलगते
ज़िन्दगी
अब राख बन रही है
दर्द की एक लम्बी सदी
जैसे बीत रही है|
अच्छी रचना...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.
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