गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

323. सपनों को हारने लगी हूँ

सपनों को हारने लगी हूँ

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तुम्हारे लिए मुश्किलें बढ़ाती-बढ़ाती
ख़ुद के लिए मुश्किलें पैदा कर ली हूँ
पल-पल क़रीब आते-आते
ज़िन्दगी से ही क़रीबी ख़त्म कर ली हूँ,
मैं विकल्पहीन हूँ
अपनी मर्ज़ी से उस राह पर बढ़ी हूँ
जहाँ से सारे रास्ते बंद हो जाते हैं,
तुम्हारे पास तो तमाम विकल्प हैं
फिर भी जिस तरह 
तुम ख़ामोशी से स्वीकृति देते हो
बहुत पीड़ा होती है
अवांछित होने का एहसास दर्द देता है,
शायद मुझसे पार जाना कठिन लगा होगा तुम्हें
इंसानियत के नाते
दुःख नहीं पहुँचाना चाहा होगा तुमने
क्योंकि कभी तुमसे तुम्हारी मर्ज़ी पूछी नहीं
जबकि भ्रम में जीना मैंने भी नहीं चाहा था,
जानते हुए कि
सामान्य औरत की तरह मैं भी हूँ
जिसको उसके मांस के
कच्चे और पक्केपन से आँका जाता है
जिसे अपने सपनों को
एक-एक कर ख़ुद तोड़ना होता है
जिसे जो भी मिलना है
दान मिलना है
सहानुभूति मिलनी है प्रेम नहीं
फिर भी मैंने सपनों की लम्बी फ़ेहरिस्त बना ली,
एक औरत से अलग भी मैं हूँ
यह सोचने का समय तुम्हारे पास नहीं
सच है मैंने अपना सब कुछ
थोप दिया था तुम पर
ख़ुद से हारते-हारते
अब सपनों को हारने लगी हूँ,
जैसे कि जंग छिड़ गया हो मुझमें
मैं जीत नहीं सकती तो
मेरे सपनों को भी मरना होगा। 

- जेन्नी शबनम (15.2. 2012)
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13 टिप्‍पणियां:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बेहतरीन सुंदर पंक्तियाँ बहुत अच्छी प्रस्तुति,...

MY NEW POST ...कामयाबी...

vandana gupta ने कहा…

सपनो को मरने ना दें।

vidya ने कहा…

कुछ भी हो जाये...सपने कभी नहीं मरते...
दब जाते हैं कही गहरे...
कभी ना कभी मन की खिडकी से झाकेंगे ज़रूर...

नारी मन को सही उकेरा आपने..
सादर..

आशा बिष्ट ने कहा…

सामान्य औरत की तरह मैं भी हूँ
जिसको उसके मांस के
कच्चे और पक्केपन से आंका जाता है
sarvsty...panktiyan mam....bahut achchha likha hai aapne..

mridula pradhan ने कहा…

badi bhawbhini kavita likhi hai.....bahut achchi lagi.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

मैंने भी
सपनों की लम्बी फेहरिस्त बना ली है,
एक औरत से अलग भी मैं हूँ
ये सोचने का समय तुहारे पास नहीं
सच है मैंने अपना सब कुछ
थोप दिया था तुमपर,
ख़ुद से हारते-हारते
अब सपनों को हारने लगी हूँ
जैसे कि जंग छिड़ गया हो मुझमें
मैं जीत नहीं सकती तो
मेरे सपनों को भी मरना होगा !... क्या सपनों को उड़ान नहीं दे सकते

Nidhi ने कहा…

बहुत सुंदरता से औरत की पीड़ा को शब्द दिए हैं ,आपने.
अवांछित होने का एहसास दर्द देता है,...यह पंक्ति दिल को छू गयी .

Pallavi saxena ने कहा…

वाह!!बहुत बढ़िया गहन अभिव्यक्ति... शुभकामनायें

Rajesh Kumari ने कहा…

सपनों की लम्बी फेहरिस्त बना ली है,
एक औरत से अलग भी मैं हूँ
ये सोचने का समय तुहारे पास नहीं
सच है मैंने अपना सब कुछ
थोप दिया था तुमपर,
ख़ुद से हारते-हारते
अब सपनों को हारने लगी हूँ
जैसे कि जंग छिड़ गया हो मुझमें
मैं जीत नहीं सकती तो
मेरे सपनों को भी मरना होगा !

man ke bhaavon ko bahut achche dhang se prastut kiya hai....vaah

Rakesh Kumar ने कहा…

ख़ुद से हारते-हारते
अब सपनों को हारने लगी हूँ
जैसे कि जंग छिड़ गया हो मुझमें
मैं जीत नहीं सकती तो
मेरे सपनों को भी मरना होगा !

मैं का संघर्ष भी बहुत दुर्गम है.
अच्छी भावपूर्ण खुद से हारती हुई सी
प्रस्तुति है आपकी.

जीतने के जज्बे की दरकार है जेन्नी जी.

समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर आईएगा.

मनोज कुमार ने कहा…

मन की व्यथा और छटपटाहट को आपने शब्द दिया है जो भीतर तक उद्वेलित करते हैं।

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

इस दुनियाँ में जिसको देखा, रोते देखा
कारण सबका एक- 'सपन संजोते देखा'

मन के धरातल से उपजा यथार्थ, वाह !!!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!