लम्हों का सफ़र
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आसमान की विशालता
जब अधीरता से खींचती है धरती की गूढ़ शिथिलता
जब कठोरता से रोकती है
सागर का हठीला मन
जब पर्वत से टकराता है
जब पर्वत से टकराता है
तब एक आँधी
मानो अट्टहास करते हुए गुज़रती है
कलेजे में नश्तर चुभता है
नस-नस में लहू उत्पात मचाता है
वक़्त का हर लम्हा, काँपता थरथराता
ख़ुद को अपने बदन में नज़रबंद कर लेता है।
मन हैरान है, मन परेशान है
जीवन का अनवरत सफ़र
लम्हों का सफ़र
जाने कहाँ रुके, कब रुके
लम्हों का सफ़र
जाने कहाँ रुके, कब रुके
जीवन के झंझावत, अब मेरा बलिदान माँगते हैं
मन न आह कहता है, न वाह कहता
कहीं कुछ है, जो मन में घुटता है
मन न आह कहता है, न वाह कहता
कहीं कुछ है, जो मन में घुटता है
पल-पल मन में टूटता है
मन को क्रूरता से चीरता है।
मन को क्रूरता से चीरता है।
ठहरने की बेताबी, कहने की बेक़रारी
अपनाए न जाने की लाचारी
एक-एक कर, रास्ता बदलते हैं
हाथ की लकीर और माथे की लकीर
अपनी नाकामी पर
गलबहिया डाले, सिसकते हैं।
अपनाए न जाने की लाचारी
एक-एक कर, रास्ता बदलते हैं
हाथ की लकीर और माथे की लकीर
अपनी नाकामी पर
गलबहिया डाले, सिसकते हैं।
आकाश और धरती
अब भावविहीन हैं
सागर और पर्वत चेतनाशून्य हैं
हम सब हारे हुए मुसाफ़िर
न एक दूसरे को ढाढ़स देते हैं
न किसी की राह के काँटे बीनते हैं
सब के पाँव के छाले
आपस में मूक संवाद करते हैं।
अब भावविहीन हैं
सागर और पर्वत चेतनाशून्य हैं
हम सब हारे हुए मुसाफ़िर
न एक दूसरे को ढाढ़स देते हैं
न किसी की राह के काँटे बीनते हैं
सब के पाँव के छाले
आपस में मूक संवाद करते हैं।
अपने-अपने, लम्हों के सफ़र पर निकले हम
वक़्त को हाज़िर नाज़िर मानकर
अपने हर लम्हे को यहाँ दफ़न करते हैं
अपने हर लम्हे को यहाँ दफ़न करते हैं
चलो अब अपना सफ़र शुरू करते हैं।
- जेन्नी शबनम (14. 2. 2015)
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8 टिप्पणियां:
Lamhon Ke Safar Mein Main Kho Saa
Gayaa Hun . Umda Rachna .
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (16-02-2015) को "बम भोले के गूँजे नाद" (चर्चा अंक-1891) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लम्हों का सफर सदियों का सफर होता है .... बहुत सुंदर रचना
हाथ की लकीर और माथे की लकीर
अपनी नाकामी पर
गलबहिया डाले
सिसकते हैं !
हम सब हारे हुए मुसाफ़िर
न एक दूसरे को ढाढ़स देते हैं
न किसी की राह के काँटे बीनते हैं ...
सब के पाँव के छाले
आपस में मूक संवाद करते हैं !
vaah bahut khub....aapna kaha aur hamne samjha ..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
Bahut hi khubsurat rachna....
गहरे भाव लिए रचना है ...
वाह...लाजवाब प्रस्तुति...
और@जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
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