मंगलवार, 19 मार्च 2019

608. स्वीकार (क्षणिका)

स्वीकार   

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मैं अपने आप से मिलना नहीं चाहती   
जानती हूँ ख़ुद से मिलूँगी तो   
जी नहीं पाऊँगी   
जीवित रहने के लिए   
मैंने उन सभी अनुबंधों को स्वीकार किया है   
जिसे मेरा मन नहीं स्वीकारता है   
विकल्प दो ही थे मेरे पास-   
जीवित रहूँ या ख़ुद से मिलूँ।     

- जेन्नी शबनम (19. 3. 2019)   
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4 टिप्‍पणियां:

Sudha Devrani ने कहा…

बहुत लाजवाब , सारगर्भित रचना...।

Shah Nawaz ने कहा…

होली पर ढेरों शुभकामनाएं!

Pammi singh'tripti' ने कहा…

बढिया क्षणिका..

M VERMA ने कहा…

बेहतरीन एहसास