तमाशा
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सच को झूठ, झूठ को सच कहती है दुनिया
इसी सच-झूठ के दरमियान रहती है दुनिया
ख़ून के नाते हों या क़िस्मत के नाते
फ़रेब के बाज़ार में सब ख़रीददार ठहरे।
सहूलियत की पराकाष्ठा है
अपनों से अपनों का छल
मन के नातों का क़त्ल
कोखजनों की बदनीयती
सरेबाज़ार शर्मसार है करती।
दुनिया को सिर्फ़ नफ़रत आती है
दुनिया कब प्यार करती है
धन-बल के लोभ में इन्सानियत मर गई है
धन के बाज़ार में सबकी बोली लग गई है।
यक़ीन और प्रेम गौरैया-सी फुर्र हुई
तमाम जंगल झुलस गए
कहाँ नीड़ बसाए परिन्दा
कहाँ तलाशे प्रेम की बगिया।
झूठ-फ़रेब के चीनी माँझे में उलझकर
लहूलुहान हो गई है ज़िन्दगी
ऐसा लगता है, खो गई है ज़िन्दगी
देखो मिट रही है ज़िन्दगी
मौत की बाहों में सिमट रही है ज़िन्दगी।
आओ-आओ तमाशा देखो
रिश्तों-नातों का तमाशा देखो
पैसों के खेल का तमाशा देखो
बिन पैसों का तमाशा देखो।
- जेन्नी शबनम (19.9.2019)
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2 टिप्पणियां:
हालिया मंजर भी है
और आक्रोश भी है।
खीज भी है और घिन भी है
इस रचना में।
पधारें अंदाजे-बयाँ कोई और
सुन्दर रचना
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