बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

23. रात का नाता मुझसे

रात का नाता मुझसे

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मेरी कराह का नाता है
रातों से, जाने कितना गहरा
ख़ामोशी से सुनती और साथ मेरे जागती है

हौले से थाम मेरी बाहें
सुबह होने तक, साथ मेरे रोती है
आँसुओं से तर मेरी रूह को
रात अपने आगोश में पनाह देती है
कभी थपकी दे
ख़ुद जाग, हमें सुला देती है
मेरी दास्ताँ
रात अपने अँधियारे में छुपा लेती है

जाने ये कैसा नाता है?
क्यों वो इतने क़रीब है ?
रात की बाँहों में कहीं चाँदनी
कहीं लाखों सितारे
फिर क्यों, बिसरा कर ये रूहानी बातें
संग आ जाती मेरे मातम में, ये रातें

कुछ तो गहरा नाता है
मेरी तरह वो भी पनाह ढूँढ़ती शायद
मेरी तरह अकेली उदास शायद
इसी लिए एक दूसरे को ढाढ़स देने
रोज़ चुपके से आ जाती रातें
मिल बाँट दुःख-दर्द अपना
बसर होती संग रातें

रात का नाता मुझसे
सुबह की किरणों संग
हँसना है

- जेन्नी शबनम (2. 9. 2008)
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1 टिप्पणी:

खोरेन्द्र ने कहा…

aansuo se tr meri ruh ko ..rat apne aagosh me pnah deti hai .....aap kitna achchha likhti hai ..vah ...ekant ke sng ruh ki ekta ko aapne schitr prstut krne ka uttam prayas kiya hai .