हम दुनियादारी निभा रहे
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एक दुनिया, तुम अपनी चला रहे
एक दुनिया, हम अपनी चला रहे।
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एक दुनिया, तुम अपनी चला रहे
एक दुनिया, हम अपनी चला रहे।
ख़ुदा तुम सँवारो दुनिया, बहिश्त-सा
महज़ इंसान हम, दुनियादारी निभा रहे।
हवन-कुंड में कर अर्पित, प्रेम-स्वप्न
रिश्तों से, घर हम अपना सजा रहे।
समाज के क़ायदे से, बग़ावत ही सही
एक अलग जहाँ, हम अपना बसा रहे।
अपने कारनामे को देखते, दीवार में टँगे
जाने किस युग से, हम वक़्त बीता रहे।
सरहद की लकीरें बँटी, रूह इंसानी है मगर
तुम सँभलो, पतवार हम अपनी चला रहे।
शब्द ख़ामोश हुए या ख़त्म, कौन समझे
'शब' से दुनिया का, हम फ़ासला बढ़ा रहे।
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बहिश्त - स्वर्ग / जन्नत
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- जेन्नी शबनम (17. 8. 2009)
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1 टिप्पणी:
jenny ji...
din kee shuruaat hee bade hee khoobsurat ghazal se hui...
bahut-bahut shukriya aapka.
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