गुरुवार, 11 अगस्त 2011

271. अलविदा कहती हूँ

अलविदा कहती हूँ

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ख़्वाहिशें ऐसे ही दम तोड़ेंगी
जानते हुए भी नए-नए ख़्वाब देखती हूँ
दामन से छूटते जाते  
जाने कितने पल
फिर भी वक़्त को समेटती हूँ
शमा फिर भी जलेगी
रातें फिर भी होंगी
साथ तुम्हारे बस एक रात आख़िरी चाहती हूँ
चाहकर टूटना या टूटकर चाहना
दोनों हाल में 
मैं ही तो हारती हूँ
दूरियाँ और भी बढ़ जाती है
मैं जब-जब पास आती हूँ
पास आऊँ या दूर जाऊँ
सिर्फ़ मैं ही 
मात खाती हूँ
न आए कोई आँच तुम पर
तुमसे दूर चली जाती हूँ
एक वचन देती हूँ प्रिय
ख़ुद से नाता तोड़ती हूँ
'शब' की हँसी गूँज रही
महफ़िल में सन्नाटा है
रूख़सत होने की बारी है
अब मैं
अलविदा कहती हूँ

- जेन्नी शबनम (अगस्त 10, 2011)
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13 टिप्‍पणियां:

मो. कमरूद्दीन शेख ( QAMAR JAUNPURI ) ने कहा…

अजीब सी उलझन है जी आपके भावों में। वर्तमान समय में रिश्तों की त्रासदी को बडे ही बेबाकी के साथ उजागर किया है।

S.N SHUKLA ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना, सुन्दर अभिव्यक्ति

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

bhtrin alfazon me khyaalon ko piro kar rkh diya hai bdhai ho .akhtar khan akela kota rajsthan

विभूति" ने कहा…

सुन्दर भावाभिवय्क्ति...

Suresh Kumar ने कहा…

इस रचना में सच्चाई नज़र आ रही है...
आभार..

Nidhi ने कहा…

उलझन से भारी मन की स्थिति को खूबसूरती से लफ़्ज़ों में बाँध दिया है आपने ...

बेनामी ने कहा…

very nice poet sabnam ji

SAJAN.AAWARA ने कहा…

Ye kesi paristhiti hai.....
Bahut hi bhavpurn rachna..
Jai hind jai bharatYe kesi paristhiti hai.....
Bahut hi bhavpurn rachna..
Jai hind jai bharat

Unknown ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना, सुन्दर अभिव्यक्ति

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर रचना और अभिव्यक्ति

चाह कर टूटना
या टूट कर चाहना
दोनों हाल में
मैं हीं तो हारती हूँ,
दूरियाँ और भी
बढ़ जाती है

संजय भास्‍कर ने कहा…

बेहद खूबसूरत कविता......

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति है!
रक्षाबन्धन के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ!

सहज साहित्य ने कहा…

अलविदा कहती हूँ -कविता में आपने प्रेम की प्रगाढ़ता और प्रिय के प्रति निस्वार्थ प्रेम की बेहतरीन प्रस्तुति की है । 'टूटकर चाहना' में प्यार की गहनता दर्शनीय है तो चाह्कर टूटना फिर उसकी प्रणति बन जती है । इस सशक्त रससिक्त कविता के लिए आपको बहुत बधाई !