आईने का भरोसा क्यों
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प्रतिबिम्ब अपना-सा दिखता नहीं
- जेन्नी शबनम (1. 6. 2012)
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प्रतिबिम्ब अपना-सा दिखता नहीं
फिर बार-बार क्यों देखना?
आईने को तोड़ निकल आओ बाहर
किसी भी मौसम को
आईने के शिनाख़्त की ज़रूरत नहीं,
कौन जानना चाहता है
क्या-क्या बदलाव हुए?
क्यों हुए?
वक़्त की मार थी
या अपना ही साया साथ छोड़ गया
किसने मन को तोड़ा
या सपनों को रौंद दिया,
आईने की ग़ुलामी
किसने सिखाई?
क्यों सिखाई?
जैसे-जैसे वक़्त ने मिज़ाज बदले
तन बदलता रहा
मौसम की अफ़रा-तफ़री
मन की गुज़ारिश नहीं थी,
फिर आईने का भरोसा क्यों?
फिर आईने का भरोसा क्यों?
- जेन्नी शबनम (1. 6. 2012)
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20 टिप्पणियां:
bilkul sacchi baat..
हाँ ना...आइना सूरत दिखाता है सीरत नहीं....
सुंदर रचना...
मन की गुजारिश नहीं थी, फिर आईने का भरोसा क्यों?
,सुंदर भाव पुर्ण रचना,,,,,
RECENT POST ,,,, काव्यान्जलि ,,,, अकेलापन ,,,,
जैसे-जैसे वक्त ने मिजाज़ बदले
तन बदलता रहा
मौसम की अफरातफरी
मन की गुजारिश नहीं थी,
बहुत खूबसूरत भाव आइना तो तन को दिखा सकता है मन को नहीं और सच्चा प्यार तो मन देखता है ....वाह जेन्नी जी बहुत खूब
बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में
'जैसे-जैसे वक्त ने मिजाज़ बदले
तन बदलता रहा'
सच! नित परिवर्तित होते हैं हम...
किसी भी मौसम को
आईने के शिनाख्त की ज़रूरत नहीं,... आईना भी बहुत बदल गया है
वाह...बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
ये नज़रिया बढ़िया ही :-)
Apne mankaa aaina hee to hame apni sachhayee batata hai!
Apne manka aainaee to apnee asalee tasveer dikhayega!
शायद इसलिए की आइना ही बदलती सूरतों का सही हिसाब किताब रख पाता है ....वरना वक़्त की मार सहते सहते कहीं हम अपनी ही सूरत न भूल जायें ......
wah......
bahut sundar prastuti
गाना सुना था 'तोरा मन दर्पण कहलाये....'
आईने की गुलामी क्या मन की गुलामी है.?
आपकी प्रस्तुति गहन विचारणीय है.
पढकर अच्छा लगा.
कुछ आप और प्रकाश डालियेगा जेन्नी जी,
आईने को समझने के लिए.
मेरी रचना की सराहना के लिए आप सभी का ह्रदय से शुक्रिया. यूँ ही मेरा हौसला बढाते रहें उम्मीद रहेगी. धन्यवाद.
राकेश जी,
पाठक के विचार से किसी भी कविता के भाव को समझा जाता है और ऐसे में एक ही कविता कई भाव को जन्म देती है. इस रचना में आईने की गुलामी (समाज की सोच के अनुरूप बनना) से तात्पर्य अपने स्व की पहचान से है जो हम खुद के द्वारा नहीं बल्कि समाज की सोच के द्वारा करते हैं. इस पंक्ति में आईने का अर्थ समाज से है. हम कैसे हैं ये हमारा मन जानता है लेकिन हमें दूसरों के अनुरूप खुद को ढालना पड़ता है. आईने (शीशे वाला आईना) में अपना प्रतिबिम्ब अपना-सा नहीं लगता है क्योंकि हमारा मन इस रूप में खुद को स्वीकार नहीं कर पाता है जैसा हमें बनाना पड़ा है, चाहे वो वक्त का बदलाव हो या उम्र की बात हो या हमारी सोच की. इस रचना में मौसम वक्त को कहा गया है और मन को भी. अगर और कुछ जानना चाहें तो अवश्य पूछें मुझे प्रसन्नता होगी.
बहुत धन्यवाद.
अपने बहुत ही अच्छी तरह से और सयुक्त सब्दो को सजोया है मन पर्फुलित होगया यहाँ आके
http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/06/blog-post_04.html
आप मेरे ब्लॉग पर आकर आपने प्रोत्साहित करने के लिए धन्यवाद., आशा करता हूँ की आप आगे भी निरंतर आते रहेंगे
आपका बहुत बहुत धयवाद
दिनेश पारीक
भाई वाह....
आभार !
मौसमों के बदलने के साथ आईने भी बदलते रहने चाहिए.. ताकि तरक्की-परस्ती सब का जायज़ा लिया जा सके.. और अपनी सूरत-श्रृंगार को हर क्षण निखारा-संवारा जा सके..
सुन्दर गहन भाव लिए कविता,
आभार
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