मंगलवार, 26 नवंबर 2013

426. जी उठे इंसानियत

जी उठे इंसानियत

*******

कभी तफ़सील से करेंगे
रूमानी ज़ीस्त के चर्चे
अभी तो चल रही है
नाज़ुक लहूलुहान हवा
डगमगाती
थरथराती
घबराती
इन्हें सँभालना ज़रुरी है
गिर जो गई होश हमारे भी मिट जाएँगे
न रहेगा तख़्त न बचेगा ताज
उजड़ जाएगा बेहाल चमन
मुफ़लिसी जाने कब कर जाएगी ख़ाक
छिन जाएगा अमन
तड़प कर चीख़ेगी 
सूरज की हताश किरणें
चाँद की व्याकुल चाँदनी
आसमाँ से लहू बरसेगा
धरती की कोख आग उगलेगी
हम भस्म होंगे
और हमारी नस्लें कुतर-कुतर कर खाएँगी
अपना ही चिथड़ा
ओह!
छोड़ो रुमानी बातें, इश्क के चर्चे  
अभी वक़्त है 
इंसान के वजूद को बचा लो
आग हवा पानी से ज़रा बहनापा निभा लो
जंगल ज़मीन को पनपने दो
हमारे दिलों को जला रही है
अपने ही दिल की चिंगारी
मौसम से उधारी लेकर
चुकाओ दुनिया की क़र्ज़दारी
नहीं है फ़ुर्सत
किसी को भी नहीं 
सँभलने की या सँभालने की 
तुम बर्खास्त करो अपनी फ़ुर्सत
और सबको भेजो जबरन
अपनी-अपनी हवाओं को सँभालने
अब नहीं तो शायद कभी नहीं
और न आएगा कोई हँसीं मौसम
वक़्त से गुस्ताख़ी करता हुआ
फिर कभी न हो पाएँगी 
फ़सलो की बातें
फूल की बातें
रुह की बातें
दिल के कच्चे-पक्के
इश्क़ की बातें
आओ अपनी-अपनी हवाओं को टेक दें
और भर दें मौसम की नज़ाकत
छोड़ जाएँ
थोड़ी रुमानियत
थोड़ी रुहानियत
ताकि जी उठे इंसानियत
फिर लोग दोहराएँगे
हमारे चर्चे 
और हम तफ़सील से करेंगे 
रूमानी ज़ीस्त के चर्चे।

- जेन्नी शबनम (26. 11. 2013)
_____________________

14 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार को (26-11-2013) "ब्लॉगरों के लिए उपयोगी" ---१४४२ खुद का कुछ भी नहीं में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Asha Lata Saxena ने कहा…


अभी तो चल रही है
"नाज़ुक लहूलुहान हवाएँ
डगमगाती
थरथराती
घबराती
इन्हें सँभालना जरुरी है
गिर जो गई
होश हमारे भी मिट जाएँगे "शानदार पंक्तियाँ
उम्दा सोच ,भावपूरण रचना |
आशा

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति-
आभार आदरणीया

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति-

सीमा स्‍मृति ने कहा…

एक बार हकीकत बयान करती व मन को झंझौरती कविता । क्‍या जी उठे इंसानियत ।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अगर इंसानियत किसी भी बहाने से जी उठे ... तो या भी कम है ... काश इंसानियत जी तो उठे ...

Jyoti khare ने कहा…

आओ अपनी-अपनी हवाओं को
टेक दें
और भर दें
मौसम की नज़ाकत
छोड़ जाएँ
थोड़ी रुमानियत
थोड़ी रुहानियत
ताकि जी उठे इंसानियत, -----

वाह !!! बहुत सुंदर और प्रभावशाली रचना
सादर

Ramakant Singh ने कहा…

zindagi ko jiti lines behatarin

travel ufo ने कहा…

प्रिय ब्लागर
आपको जानकर अति हर्ष होगा कि एक नये ब्लाग संकलक / रीडर का शुभारंभ किया गया है और उसमें आपका ब्लाग भी शामिल किया गया है । कृपया एक बार जांच लें कि आपका ब्लाग सही श्रेणी में है अथवा नही और यदि आपके एक से ज्यादा ब्लाग हैं तो अन्य ब्लाग्स के बारे में वेबसाइट पर जाकर सूचना दे सकते हैं

welcome to Hindi blog reader

रश्मि प्रभा... ने कहा…

आसमान पर ज़िंदगी की तहरीर...! यूँ ही नहीं लिखी जाती - कुछ अफ़साने होते हैं,कुछ घुटते एहसास,कुछ तलाशती आँखों के खामोश मंज़र, कुछ ……जाने कितना कुछ,
जिसे कई बार तुम कह न सको
लिख न सको
फिर भी - कोई कहता है,कहता जाता है …… घड़ी की टिक टिक की तरह निरंतर
http://www.parikalpnaa.com/2013/11/blog-post_30.html

सीमा स्‍मृति ने कहा…

जी उठे इंसानियत प्रश्‍न गहरा काश ये प्रश्‍न हर दिल में उतर जाए। कुछ रूहानियत इसी बात में मिल जाएगी।

tbsingh ने कहा…

nice presentation

tbsingh ने कहा…

sunder rachana

Asha Joglekar ने कहा…

आओ अपनी-अपनी हवाओं को
टेक दें
और भर दें
मौसम की नज़ाकत
छोड़ जाएँ
थोड़ी रुमानियत
थोड़ी रुहानियत
ताकि जी उठे इंसानियत,
फिर लोग दोहराएँगे
हमारे चर्चे
और हम तफ़सील से करेंगे
रूमानी जीस्त के चर्चे

आमीन।