मंगलवार, 1 मई 2018

573. ऐसा क्यों जीवन

ऐसा क्यों जीवन   

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ये कैसा सहर है   
ये कैसा सफ़र है   
रात-सा अँधेरा जीवन का सहर है   
उदासी पसरा जीवन का सफ़र है।   
सुबह से शाम बीतता रहा   
जीवन का मौसम रूलाता रहा   
धरती निगोडी बाँझ हो गई   
आसमान जो सारी बदली पी गया।   
अब तो आँसू है पीना और सपने है खाना    
यही है ज़िन्दगी   
यही हम जैसों की कहानी।   
न मौसम है सुनता, न हुकूमत ही सुनती   
मिटते जा रहे हम, पर वे हँसते हैं हमपर।   
सियासत के खेलों ने बड़ा है तड़पाया   
फाँसी के फँदों की बाँहों में पहुँचाया।   
हमारे क़त्ल का इल्ज़ाम   
हम पर ही है आया-   
पिछले जन्म का था पाप   
जो अब हमने है चुकाया।   
अब आज़ादी का मौसम है   
न भूख है न सपने हैं   
न आँसू है न अपने हैं   
न सियासत के धोखे हैं।   
हम मर गए पर मेरे सवाल जीवित हैं-   
हम कामगारों का ऐसा जीवन क्यों?  
वे हमसे जीते हैं और हम मरते हैं क्यों?  
हमारे पुरखे भी मरते हम भी मरते हैं।   
कैसा सहर है, कैसा सफ़र है   
मौत में उजाला ढूँढता हमारा सहर है 
बेमोल जीवन यही जीवन का सफ़र है।   

- जेन्नी शबनम (1. 5. 2018) 
(मज़दूर दिवस)  
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5 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मजदूर दिवस पर क्या याद आते हैं बाल मजदूर !? “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (03-05-2017) को "मजदूरों के सन्त" (चर्चा अंक-2959) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

ज्योति-कलश ने कहा…

यथार्थ प्रस्तुति , बधाई !

वाणी गीत ने कहा…

ऐसा क्यों है जीवन!!
वाजिब प्रश्न...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

प्रश्न जिन्दा रहते हैं ... रह रहे हैं सदियों से बिना जवाब के ...
मन की व्यथा को शब्द दिए हैं आपने ...