तपता ये जीवन 
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1.   
अँजुरी भर   
सुख की छाँव मिली   
वह भी छूटी   
बच गया है अब   
तपता ये जीवन।   
2.   
किसे पुकारूँ   
सुनसान जीवन   
फैला सन्नाटा,   
आवाज़ घुट गई   
मन की मौत हुई।   
3.   
घरौंदा बसा   
एक-एक तिनका   
मुश्किल जुड़ा,   
हर रिश्ता विफल   
ये मन असफल।   
4.   
क्यों नहीं बनी   
किस्मत की लकीरें   
मन है रोता,   
पग-पग पे काँटे   
आजीवन चुभते।   
5.   
सावन आया   
पतझर-सा मन   
नहीं हर्षाया,   
जीवन होता, काश!    
गुलमोहर-गाछ।   
6.   
नहीं विवाद   
मालूम है, जीवन   
क्षणभंगुर   
कैसे न दिखे स्वप्न   
मन नहीं विपन्न।   
7.   
हवा के संग   
उड़ता ही रहता   
मन-तितली   
मुर्झाए सभी फूल   
कहीं मिला न ठौर।   
8.   
तड़प रहा   
प्रेम की चाहत में   
मीन-सा मन,   
प्रेम लुप्त हुआ, ज्यों   
अमावस का चाँद।   
9.   
जो न मिलता   
सिरफिरा ये मन   
वही चाहता   
हाथ पैर मारता   
अंतत: हार जाता।   
10.   
स्वप्न-संसार   
मन पहरेदार   
टोकता रहा,   
जीवन से खेलता  
दिमाग अलबेला।
दिमाग अलबेला।
-जेन्नी शबनम (25.5.2018) 
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9 टिप्पणियां:
शुभ प्रभात दीदी..
बेहतरीन...
सादर
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 24 जुलाई 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-07-2018) को "अज्ञानी को ज्ञान नहीं" (चर्चा अंक-3042) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सभी कहावत ताकाँ हैं ...
अपनी बात को स्पष्ट रखते हुए ... बहुत प्रखर ...
मन के अंतर मंथन पर शानदार ताँका ।
बहुत भावपूर्ण , बधाई !
Bahut khoob....
मन के भीतर झांकते मनके अच्छे लगे ।
तपते जीवन को ताँका की विचारशील झलकियों में पिरोकर आपने बड़ी ख़ूबसूरती से पेश किया है. मर्मस्पर्शी सृजन.
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