आईना और परछाई
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आईना मेरा सखा
जो मुझसे कभी झूठ नहीं बोलता
परछाई मेरी सखी
जो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ती
इन दोनों के साथ मैं
जीवन के धूप-छाँव का खेल खेलती
आईना मेरे आँसू पोंछता
बिना थके मुझे सदा हँसाता
परछाई मेरे संग-संग घूमती
अँधियारे से मैं जब-जब डरती
मेरा हाथ पकड़ वो रोशनी में भागती
हाँ! यह अलग बात
आजकल आईना मुझसे रूठा है
मैं उससे मिलने नहीं जाती
उसका सच मैं देखना नहीं चाहती
आजकल मेरी परछाई मुझसे लड़ती है
मैं अँधेरों से बाहर नहीं निकलती
जाने क्यों रोशनी मुझे नहीं सुहाती।
जानती हूँ, ये दोनों साथी
मेरे हर वक़्त के राज़दार हैं
मेरा आईना मेरा मन
मेरी परछाई मेरी साँसें
ये कभी न छोड़ेंगे मेरा दामन।
- जेन्नी शबनम (9. 6. 2020)
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11 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लिखा।
आईना रूबरू आईने के हो जाए जरा
बात दोनों की चली जाए बहुत गहरी में
इस शेर को समझिए जब एक दर्पण को दूसरे दर्पण के एन सामने रखा जाता है तो प्रतिबिंब ओं की संख्या आप इमेजिन कीजिए कितनी होगी कोई नहीं कर सकता अनंत हो होगी और यही अनंत हमारे जीवन का सत्य है बहुत बढ़िया आईने के जरिए आपने अपनी बात रखी और टिप्पणी के जरिए हमने अपनी बात रखी शुक्रिया बहुत बेहतरीन ब्लॉग पोस्ट के लिए
दोस्ती मज़बूत हो तभी अच्छी ...
पर ख़ुद भी निभानी चाहिए ये और दोनों के पास और उनके हिसाब से जाना चाहिए ... जीवन के ऐसे पल बीत जाते हैं ...
बेहतरीन रचना
bohot acchi rachna
गहन संवेदना से अनुप्राणित कविता,हृदयस्पर्शी- रामेश्वर काम्बोज
नमस्ते,
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 11 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह!लाजवाब!
बहुत ही सुंदर ,आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे
बहुत सुंदर!
गहन भावों की गहन अभिव्यक्ति।
ये तो मन और सांसों की बात है वर्ना हम यही कहते..
आईने कहाँ सच बताते हैं
वो तो सिर्फ चेहरा दिखाते हैं
चेहरे कब हकीकत होते हैं
बनावटी मुखौटों से ठग होते हैं।
शानदार सृजन।
बहुत सुन्दर
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