रविवार, 13 दिसंबर 2020

701. पत्थर या पानी (पुस्तक- नवधा)

पत्थर या पानी 

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मेरे अस्तित्व का प्रश्न है-   
मैं पत्थर बन चुकी या पानी हूँ?   
पत्थरों से घिरी, मैं जीवन भूल चुकी हूँ   
शायद पत्थर बन चुकी हूँ   
फिर हर पीड़ा मुझे रुलाती क्यों है?   
हर बार पत्थरों को धकेलकर   
जिधर राह मिले, बह जाती हूँ   
शायद पानी बन चुकी हूँ   
फिर अपनी प्यास से तड़पती क्यों हूँ?   
हर बार, बार-बार   
पत्थर और पानी में बदलती मैं   
नहीं जानती, मैं कौन हूँ।   

-जेन्नी शबनम (12.12.2020)
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12 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

दोनों का सम्मिश्रण है जीवन। सुन्दर।

Onkar ने कहा…

बहुत सुदर

Ravindra Singh Yadav ने कहा…

नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 14 दिसंबर 2020 को 'जल का स्रोत अपार कहाँ है' (चर्चा अंक 3915) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

#रवीन्द्र_सिंह_यादव

Jyoti Dehliwal ने कहा…

सुंदर।

उर्मिला सिंह ने कहा…

उम्मदा रचना

Amrita Tanmay ने कहा…

यक्ष प्रश्न । अति सुन्दर ।

मन की वीणा ने कहा…

वाह गज़ब !!
बहुत शानदार।

कल्पना मनोरमा (Kalpana Manorama) ने कहा…

अच्छा प्रश्न छोड़ती कविता

ऋता शेखर 'मधु' ने कहा…

समय के अनुसार ढलना ही जीवन की गति है| सुन्दर रचना|

Shantanu Sanyal शांतनु सान्याल ने कहा…

सुन्दर रचना।

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

जीवन ही पत्थर पानी सा, बाहर से कठोर भीतर से झर झर बहता हुआ

अनीता सैनी ने कहा…

पत्थर और पानी में बदलती मैं
नहीं जानती, मैं कौन हूँ...ज़िंदगी की लहर का ज़िंदगी से प्रश्न।
बहुत सुंदर