गुरुवार, 16 जुलाई 2009

71. कोई बात बने (अनुबन्ध/तुकान्त) (पुस्तक- नवधा)

कोई बात बने

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ज़ख़्म गहरा हो औ ताज़ा मिले, तो कोई बात बने
थोड़ी उदासी से, न कोई ग़ज़ल न कोई बात बने

दस्तूर-ए-ज़िन्दगी, अब मुझको न बताओ यारो
एक उम्र जो फिर मिल जाए, तो कोई बात बने 

मौसम की तरह हर रोज़, बदस्तूर बदलते हैं वो
गर अब के जो न बदले मिज़ाज, तो कोई बात बने 

रूठने-मनाने की उम्र गुज़र चुकी, अब मान भी लो
एक उम्र में जन्म दूजा मिले, तो कोई बात बने 

उनके मोहब्बत का फ़न, बड़ा ही तल्ख़ है यारो
फ़क़त तसव्वुर में मिले पनाह, तो कोई बात बने 

रख आई 'शब' अपनी ख़ाली हथेली उनके हाथ में
भर दें वो लकीरों से तक़दीर, तो कोई बात बने

-जेन्नी शबनम (15. 7. 2009)
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2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

रख आई अपनी हथेली खाली ''शब'' उनके हाथों में,
भर दें वो लकीरों से तक़दीर तो, कोई बात बने !
wah-wah, dard chupane ka bahut khoob andaz...

renu agarwal ने कहा…

बहुत खूब !!

जब कभी दर्द हुआ तो अश्क बहे
टीस उठी तो ग़ज़ल हो गई ...........