शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

93. नज़्म तुम्हारी बनते हैं / nazm tumhaari bante hain

नज़्म तुम्हारी बनते हैं

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चलो ऐसा कुछ करते हैं
एक दर्द अपना रोज़ कहते हैं
तुम सुनते जाना मेरा अफ़साना
एक नज़्म तुम्हारी हम रोज़ बनते हैं 

फूल खिलेंगे नज़्मों के
दर्द की दास्ताँ जब पूरी होगी
समेट लेना नज़्मों का हर गुच्छा
उन फूलों में मेरे दर्द की निशानी होगी 

ऐसा कुछ करना तुम
रूह छोड़ जाए मुझको जब
अपनी नज़्मों का एक गुलदस्ता
मेरी मज़ार पे रोज़ चढ़ाना तब

- जेन्नी शबनम (30. 10. 2009)
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nazm tumhaari bante hain.

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chalo aisa kuchh karte hain
ek dard apna roz sunaate hain
tum sunte jaanaa mera afsaanaa
ek nazm tumhaaree hum roz bante hain.

phool khilenge nazmon ke
dard kee daastaan jab poori hogi
samet lenaa nazm ka har guchchha
un phoolon  mere dard kee nishaanee hai.

aisa kuchh karna tum
rooh chhod jaaye mujhko jab
apnee nazmon ka ek guldasta
roz meree mazaar pe chadhaanaa tab.

- jenny shabnam (30. 10. 2009)
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1 टिप्पणी:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

एक नज़्म का छींटा मैंने भी डाला है,
कोई बूंद खिलखिलाए उसे नज़्म बना लेना