बुधवार, 3 अगस्त 2011

268. कह न पाऊँगी कभी

कह न पाऊँगी कभी

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अपने जीवन का सत्य
कह न पाऊँगी किसी से कभी
अपने पराए का भेद समझती हूँ
पर जानती हूँ
कह न पाऊँगी किसी से कभी

न जाने कब कौन अपना बनकर
जाल बिछा रहा हो
किसी तरह फँसकर
उसके जलसे का
मैं बस हिस्सा रह जाऊँ 

बहुत घुटन होती है
जब-जब भरोसा टूटता है
किसी अपने के सीने से
लिपट जाने का मन करता है 

समय-चक्र और नियति
कहाँ कौन जान पाया है?
किसी पराए की प्रीत
शायद प्राण दे जाए
जीवन का कारण बन जाए
पर पराए का अपनापन
कैसे किसी को समझाएँ?

अपनों का छल
बड़ा घाव देता है
पराए से अपना कोई नहीं 
मन जानता है
पर जानती हूँ
कह न पाऊँगी किसी से कभी। 

- जेन्नी शबनम (19. 7. 2011)
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16 टिप्‍पणियां:

SAJAN.AAWARA ने कहा…

sahi kaha hai mam apne,,,,apno ka chal bada ghav deta hai....

sasahkt rachna

jai hind jai bharat

Suresh Kumar ने कहा…

bahut hi acchi bhawabhyakti..

swagata hai aapaka mere blog par..

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

न जाने कब कौन
अपना बनकर
जाल बिछा रहा हो,

सच्ची अभिव्यक्ति...
जाने क्यूँ बिछे हुए 'जालों' पर बहुधा अपनों के ही छाप दीखते हैं...
सादर...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

कोई कब तक जाल बिछाएगा और क्या कर लेगा ... कागज़ का रिश्ता दर्द से जुड़ा होता है

Dorothy ने कहा…

गहन भाव समेटे बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

छवि मित्तल ने कहा…

ये कहन बेहद मुश्किल है,जीवन का सच यही है कि जाल बिछते जाते हैं और हम कभी कभी चाहकर कभी कभी न चाहकर उसमे फंसते चले जाते हैं ,कभी -कभी ये जाल खुद हमारा बुना हुआ होता है |अपनों के सीने से लिपटना और पराये की प्रीत से प्राण को बचाने की कोशिश बेईमानी हैं ,हमें अपने परायों में से किसी एक को चुनना होगा |न कहना भी हिंसा है इससे बचने की कोशिश की जानी चाहिए |आपकी कविता मधुमास में भी हमने ग्वालियर में पढ़ी है दीदी ,ब्लॉग पर आकार अच्छा लगा |

S.N SHUKLA ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति , सुन्दर भावाभिव्यक्ति

vidhya ने कहा…

वाह बहुत ही सुन्दर
रचा है आप ने
क्या कहने ||
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
अगर आपको love everbody का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है , कृपया पधारें
चर्चा मंच

mridula pradhan ने कहा…

bahut sunder likhi hain.

vandana gupta ने कहा…

मन के कोमल भावो का सुन्दर चित्रण्।

विभूति" ने कहा…

अपनों से कहा कुछ कह है पाते है हम? अपने तो अपने होते है... भावपूर्ण रचना...

केवल राम ने कहा…

किसी भाव को महसूस करना जितना आसान है कहना उतना ही कठिन है ....आपका आभार

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह बेहतरीन !!!!

भावों को सटीक प्रभावशाली अभिव्यक्ति दे पाने की आपकी दक्षता मंत्रमुग्ध कर लेती है...

ऋता शेखर 'मधु' ने कहा…

न जाने कब कौन
अपना बनकर
जाल बिछा रहा हो,
समय-चक्र और नियति
कहाँ कौन जान पाया है,
sachchai se ru-b-ru karati lines...
acchi lagi

vijay kumar sappatti ने कहा…

शबनम जी
आपकी कविताएं पढ़ने का अपना अलग ही अहसास है .. संतुलित शब्दों में आप अपनी बात कह जाती है ,जो कि दिल में उतर जाती है .. इस कविता ने भी वही किया है , दिल में बस जाने का काम ...
बधाई

आभार
विजय

कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html