लौट चलते हैं अपने गाँव
*******
मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से,
चलो, लौट चलते हैं अपने गाँव
अपने घर चलते हैं
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते ही हर घर उठ जाता है
चटाई बीनती हुक्का गुड़गुड़ाती
बुढ़िया दादी धूप सेंकती है
गाँती बाँधे नन्हकी सिलेट पे पेंसिल घिसती है
अजोर हुए अब तो देर हुई
बड़का बऊआ अपना बोरा-बस्ता लेकर
स्कूल न जाने की ज़िद में खड़ा है
गाँव के मास्टर साहब
आज ले ही जाने को अड़े हैं
क्या ग़ज़ब नज़ारा है
बड़ा अजब माजरा है,
अँगने में रोज़ अनाज पसरता है
जाँता में रोज़ दाल दराता है
गेहूँ पीसने की अब बारी है
भोर होते ही रोटी भी तो पकानी है
सामने दौनी-ओसौनी भी जारी है
ढेंकी से धान कूटने की आवाज़ लयबद्ध आती है,
खेत से अभी-अभी तोड़ी
घिउरा और उसके फूल की तरकारी
ज़माना बीता पर स्वाद आज भी वही है
दोपहर में जन सब के साथ पनपियाई
अलुआ नमक और अचार का स्वाद
मन में आज भी ताज़ा है,
पगहा छुड़ाते धीरे-धीरे चलते बैलों की टोली
खेत जोतने की तैयारी है
भैंसी पर नन्हका लोटता है
जब दोपहर बाद घर लौटता है,
गोड़ में माटी की गंध
घूर तापते चचा की कहानी
सपनों सी रातें
अब मुझे बुलाती है।
चलो, लौट चलते हैं
अपने गाँव
अपने घर चलते हैं।
______________________
अजोर - रोशनी
पहरू - रात्रि में पहरेदारी करने वाला
चटाई बीनती - चटाई बुनना
गाँती - ठण्ड से बचाव के लिए बच्चों को एक विशेष तरीके से चादर / शॉल से लपेटना
बोरा-बस्ता - बैठने के लिए बोरा और किताब का झोला
जाँता - पत्थर से बना हाथ से चला कर अनाज पीसने का यंत्र
दराता - दरना
दौनी - पौधों से धान को निकालने के लिए इसे काटकर इकत्रित कर उस पर बैल चलाया जाता है
ओसौनी - दौनी होने के बाद धान को अलग करने की क्रिया
ढेंकी - लकड़ी से बना यंत्र जिसे पैर द्वारा चलाया जाता है और अनाज कूटा जाता है
घिउरा - नेनुआ
जन - काम करने वाले मज़दूर / किसान
पनपियाई - दोपहर से पहले का खाना
अलुआ - शकरकंद
गोड़ - पैर
घूर - अलाव
चचा - चाचा
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मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से,
चलो, लौट चलते हैं अपने गाँव
अपने घर चलते हैं
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते ही हर घर उठ जाता है
चटाई बीनती हुक्का गुड़गुड़ाती
बुढ़िया दादी धूप सेंकती है
गाँती बाँधे नन्हकी सिलेट पे पेंसिल घिसती है
अजोर हुए अब तो देर हुई
बड़का बऊआ अपना बोरा-बस्ता लेकर
स्कूल न जाने की ज़िद में खड़ा है
गाँव के मास्टर साहब
आज ले ही जाने को अड़े हैं
क्या ग़ज़ब नज़ारा है
बड़ा अजब माजरा है,
अँगने में रोज़ अनाज पसरता है
जाँता में रोज़ दाल दराता है
गेहूँ पीसने की अब बारी है
भोर होते ही रोटी भी तो पकानी है
सामने दौनी-ओसौनी भी जारी है
ढेंकी से धान कूटने की आवाज़ लयबद्ध आती है,
खेत से अभी-अभी तोड़ी
घिउरा और उसके फूल की तरकारी
ज़माना बीता पर स्वाद आज भी वही है
दोपहर में जन सब के साथ पनपियाई
अलुआ नमक और अचार का स्वाद
मन में आज भी ताज़ा है,
पगहा छुड़ाते धीरे-धीरे चलते बैलों की टोली
खेत जोतने की तैयारी है
भैंसी पर नन्हका लोटता है
जब दोपहर बाद घर लौटता है,
गोड़ में माटी की गंध
घूर तापते चचा की कहानी
सपनों सी रातें
अब मुझे बुलाती है।
चलो, लौट चलते हैं
अपने गाँव
अपने घर चलते हैं।
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अजोर - रोशनी
पहरू - रात्रि में पहरेदारी करने वाला
चटाई बीनती - चटाई बुनना
गाँती - ठण्ड से बचाव के लिए बच्चों को एक विशेष तरीके से चादर / शॉल से लपेटना
बोरा-बस्ता - बैठने के लिए बोरा और किताब का झोला
जाँता - पत्थर से बना हाथ से चला कर अनाज पीसने का यंत्र
दराता - दरना
दौनी - पौधों से धान को निकालने के लिए इसे काटकर इकत्रित कर उस पर बैल चलाया जाता है
ओसौनी - दौनी होने के बाद धान को अलग करने की क्रिया
ढेंकी - लकड़ी से बना यंत्र जिसे पैर द्वारा चलाया जाता है और अनाज कूटा जाता है
घिउरा - नेनुआ
जन - काम करने वाले मज़दूर / किसान
पनपियाई - दोपहर से पहले का खाना
अलुआ - शकरकंद
गोड़ - पैर
घूर - अलाव
चचा - चाचा
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- जेन्नी शबनम ( जुलाई 2003)
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- जेन्नी शबनम ( जुलाई 2003)
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16 टिप्पणियां:
लौट चलते हैं
अपने गाँव,
अपने घर चलते हैं I
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते हीं
हर घर उठ जाता है I... der hui, ab ghar laut chalen
सुन्दर रचना आपकी, नए नए आयाम |
देत बधाई प्रेम से, प्रस्तुति हो अविराम ||
अपने सुनहरे गाँव को समर्पित अद्भुत रचना...गाँव की याद फिर से आ गयी...
बहुत-बहुत शुभकामनायें एक अतुलनीय रचना के लिये...आभार
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बहुत सुंदर कविता, हर पंक्ति में दर्शन होते हैं गाँव के माहौल के ...बधाई
Bihari mahak ko bikherti rachana bahut achchhi lagi .
बहुत ही खुबसूरत गावों को समर्पित अभिवयक्ति....
Jenni jee
आपको अग्रिम हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं. हमारी "मातृ भाषा" का दिन है तो आज से हम संकल्प करें की हम हमेशा इसकी मान रखेंगें...
आप भी मेरे ब्लाग पर आये और मुझे अपने ब्लागर साथी बनने का मौका दे मुझे ज्वाइन करके या फालो करके आप निचे लिंक में क्लिक करके मेरे ब्लाग्स में पहुच जायेंगे जरुर आये और मेरे रचना पर अपने स्नेह जरुर दर्शाए...
BINDAAS_BAATEN कृपया यहाँ चटका लगाये
MADHUR VAANI कृपया यहाँ चटका लगाये
MITRA-MADHUR कृपया यहाँ चटका लगाये
सुन्दर रचना , सुन्दर भावाभिव्यक्ति , बधाई
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .
अलुआ नमक और अचार का स्वाद
मन में आज भी ताज़ा है इ ख़ूबसूरत बिम्ब शब्दों के ,अपनों के ,सपनों के ...बहुत खूब !.http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/2011/09/blog-post_13.हटमल
अफवाह फैलाना नहीं है वकील का काम .
गाँव की सोंधी खुशबू से महकी हुई रचना ............गाँव की याद दिलाने के लिए आभार
लौट चलते हैं
अपने गाँव,
अपने घर चलते हैं I
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते हीं
हर घर उठ जाता है ।
वाह ...बहुत ही बढि़या ।
gaanw ki mitti aur galiyon ki mahak kuch aur hi hoti hai... wahan ek ajeeb sa sukoon hota hai... yaha shahron mei to sukoon k naam pe bhi ghadi ki tik-tik chalti hai...
bahut bahut abhar us mahak ki yaad dilane k liye...
बहुत सशक्त शब्द चित्र..
bahut hi sunder kavita...gramin mahol ke ek ek pahlu ka varnan kiya hai..bahut bahut badhai.
मर्मस्पर्शी शब्दचित्र। महानगरीय जीवन की भयावहता से मन ऊब गया है तब याद आता है वास्तविक पात्रों,भावों और साधनों वाला गाँव। सार्थक रचना। बधाई।
शब्दार्थ लिखने के लिए बहुत-बहुत आभार।
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