शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

294. बाध्यता नहीं (क्षणिका)

बाध्यता नहीं

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ये मेरी चाह थी कि तुम्हें चाहूँ और तुम मुझे
पर ये सिर्फ़ मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं। 

- जेन्नी शबनम (9. 10. 2011)
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15 टिप्‍पणियां:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

कम शब्दों में सब कुछ कह दिया..सुंदर पोस्ट मुझे पसंद आई...बधाई

***Punam*** ने कहा…

"ये चाह थी मेरी कि
तुम्हें चाहूँ
और तुम मुझे,
पर
ये सिर्फ
मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं !"

अब इसके आगे क्या कहूँ....?
और चाहूँ भी तो क्या चाहूँ...??

Nidhi ने कहा…

रिश्तों में चाह ..हो सकती अहि पर चाहने की बाध्यता होना उचित नहीं...कम शब्दों में आपने सारी बात कह दी .

विभूति" ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
रविकर ने कहा…

वाह, बहुत सुंदर ||

रश्मि प्रभा... ने कहा…

मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं !... फिर बाध्यता से परे मुझे ही खुश रहना है . कम शब्दों में गहरे एहसास

सदा ने कहा…

ये सिर्फ
मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं !"

वाह ..बहुत ही बढि़या ।

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत ही खुबसूरत.....

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत खूब ! कुछ शब्दों में बहुत कुछ कह दिया..

विभूति" ने कहा…

कम शब्द गहरे भाव.....

Rajesh Kumari ने कहा…

bahut khoob bahut kuch chipa hai in panktiyon me.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

हर कोई अपनी चाह के लिए ही जीता है ... कम शब्दों में गहरी बात ...

Rakesh Kumar ने कहा…

वाह! आपकी चाहत बहुत खूबसूरत है.
बाध्यता के बंधन से मुक्त.

सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
आपके अमूल्य विचारों से मेरा मनोबल
बढ़ता है.

Ashok Kumar ने कहा…

BHAWNA KO SHABD ME DHALNA;
NISSANDEH KUCHH KAHANE KO
MERE PAS SHABD NAHI HAI.

सहज साहित्य ने कहा…

प्रेम के सात्विक रूप को कुछ ही शब्दों में भावपूर्ण आकार देने में आपकी क्षमता सराहनीय है जेन्नी जी । ये पंक्तियाँ बहुत प्रभाशाली हैं-
ये चाह थी मेरी कि
तुम्हें चाहूँ
और तुम मुझे,