शनिवार, 17 मार्च 2012

332. वक़्त की आख़िरी गठरी (क्षणिका)

वक़्त की आख़िरी गठरी

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लफ़्ज़ की सरगोशी, जिस्म की मदहोशी
यूँ जैसे 
साँसों की रफ़्तार घटती रही
एक-एक को चुनकर, हर एक को तोड़ती रही
सपनों की गिनती फिर भी न ख़त्म हुई
ज़िद की बात नहीं, न चाहतों की बात है
पहरों में घिरी रही 'शब' की हर पहर-घड़ी
मलाल कुछ इस क़दर जैसे
मुट्ठी में कसती गई वक़्त की आख़िरी गठरी। 

- जेन्नी शबनम (16. 3. 2012)
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13 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

एक-एक को चुन कर
हर एक को
तोड़ती रही
सपनों की गिनती
फिर भी न ख़त्म हुई,

बहुत बहुत सुन्दर जेन्नी जी...
लाजवाब...

mridula pradhan ने कहा…

hamesha ki tarah.....bahut achchi.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच है सपने कम पड़ जाते हैं ... साँसें खटन हो जाती हैं ... गहरी रचना ...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

बहुत ही गहन चिंतन

रविकर ने कहा…

सुन्दर ।

प्रभावी प्रस्तुति ।।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

साँसों की रफ़्तार
घटती रही,
एक-एक को चुन कर
हर एक को
तोड़ती रही...
बहुत सुंदर सार्थक रचना,अच्छी प्रस्तुति...

MY RESENT POST ...काव्यान्जलि ...: तब मधुशाला हम जाते है,...

Pallavi saxena ने कहा…

बहुत खूब गहन अभिव्यक्ति....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

नीरज गोस्वामी ने कहा…

आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)

बेहतरीन लेखन ..बधाई स्वीकारें



नीरज

Ramakant Singh ने कहा…

हर एक को
तोड़ती रही
सपनों की गिनती
फिर भी न ख़त्म हुई,
ज़िद की बात नहीं
न चाहतों की बात है
HAMESHA KI TARAH KHUBSURAT.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

पिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...

इस खूबसूरत रचना के लिए बधाई स्वीकारें.

नीरज

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति.... बहुत बहुत बधाई.....

Madhuresh ने कहा…

ये वाली थोड़ी कम समझ आई...इतनी परिपक्वता नहीं शायद मुझमे.. फिर भी अभिव्यक्ति पढ़कर अच्छा लगा..