शनिवार, 18 जुलाई 2015

496. वो कोठरी

वो कोठरी

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वो कोठरी   
मेरे नाम की
जहाँ रहती थी मैं, सिर्फ़ मैं 
मेरे अपने पूरे संसार के साथ
इस संसार को छूने की छूट
या इस्तेमाल की इजाज़त किसी को नही थी,
ताखे पर क़रीने से रखा एक टेपरिकार्डर
अनगिनत पुस्तकें और सैकड़ों कैसेट
जिस पर अंकित मेरा नाम
ट्रिन-ट्रिन अलार्म वाली घड़ी
खादी के खोल वाली रज़ाई
सफ़ेद मच्छरदानी
सिरहाने में टॉर्च
लालटेन और दियासलाई 
जाने कब कौन मेरे काम आ जाए,
लकड़ी का एक पलंग और मेज़ 
जो पापा इस्तेमाल करते थे 
अब मेरे अधिकार में था 
ताखे में ज़ीरो पावर का लाल-हरा बल्ब
जिसकी रोशनी में कैमरे का रील साफ़ कर
पापा अपना शौक़ पूरा करते थे
वह लाल-हरी बत्ती सारी रात
मेरी निगहबानी करती थी
दिवार वाली एक आलमारी
जिसमें कभी पापा की किताबें आराम करती थीं
बाद में मेरी चीज़ों को सँभालकर रखती थी,
लोहे का दो रैक
जिसने दीवारों पर टँगे-टँगे  
पापा की किताबों को हटते
और मेरे सामानों को भरते हुए देखा था
लोहे का एक बक्सा
जो मेरी माँ के विवाह की निशानी है  
मेरे अनमोल ख़ज़ाने से भरा
टेबल बन बैठा रहता था,
वह छोटी-सी कोठरी धीरे-धीरे
पापा के नाम से मेरे नाम चढ़ गई
मैं पराई हुई मगर
वह कोठरी मेरे नाम से रह गई,  
अब भी वो कोठरी मुझे सपनों मे बुलाती है
जहाँ मेरी ज़िन्दगी की निशानी है
पापा की कोठरी जो बनी थी कभी मेरी    
अब मेरे नाम की भी न रही 
वो कोठरी
    

- जेन्नी शबनम (18. 7. 2015)
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6 टिप्‍पणियां:

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

सुन्दर कविता.........आहा !!

PRAN SHARMA ने कहा…

Marm Sparshi kavita .

ज्योति-कलश ने कहा…

बेहद भावपूर्ण ,मर्म स्पर्शी रचना !

Aparna Bose ने कहा…

सरल एवं सुन्दर...

बेनामी ने कहा…

मार्मिक प्रस्तुति

rameshwar kamboj ने कहा…

बहन जेन्नी जी यह कविता नहीं वरन जीवन का धड़कता हुआ वह सत्य है , जिसे हम केवल महसूस कर सकते हैं। आपकी लेखन इस कविता में सहस्रधारा होकर बह निकली है । आपके लेखन को नमन !!