बुधवार, 6 नवंबर 2019

636. रेगिस्तान (क्षणिका)

रेगिस्तान 

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आँखें अब रेगिस्तान बन गई हैं 
यहाँ न सपने उगते हैं न बारिश होती है 
धूल-भरी आँधियों से 
रेत पे गढ़े वे सारे हर्फ़ मिट गए हैं 
जिन्हें सदियों पहले किसी ऋषि ने लिख दिया था- 
कभी कोई दुष्यंत सब विस्मृत कर दे तो 
शकुंतला यहाँ आकर अतीत याद दिलाए 
पर अब कोई स्रोत शेष नहीं 
जो जीवन को वापस बुलाए 
कौन किसे अब क्या याद दिलाए।  

- जेन्नी शबनम (6. 11. 2019)
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4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (07-11-2019) को      "राह बहुत विकराल"   (चर्चा अंक- 3512)    पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Ravindra Singh Yadav ने कहा…

नमस्ते,
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 07 नवंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

नीलांश ने कहा…

अच्छी रचना ,
आशा रूपी मरीचिका और हम हिरण ,चलना होगा अनवरत
नयनों के कई स्वपनों का भी ढलना होगा अनवरत

सादर
--- नील

Rohitas Ghorela ने कहा…

कितना विपरीत बदलाव हो चुका है।
बहुत ही शानदार रचना।
मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है👉👉 जागृत आँख