बुधवार, 25 नवंबर 2020

699. दागते सवाल (पुस्तक- नवधा)

दागते सवाल 

*** 

यही तो कमाल है   
सात समंदर पार किए, साथ समय को मात दी   
फिर भी कहते हो-   
हम साथ चलते नहीं हैं।   

हर स्वप्न को बड़े जतन से ज़मींदोज़ किया   
टूटने की हद तक ख़ुद को लुटा दिया   
फिर भी कहते हो-   
हम साथ देते नहीं हैं।   

अविश्वास की नदी अविरल बह रही है   
दागते सवाल मुझे झुलसा रहे हैं   
मेरे अन्तस् का ज्वालामुखी, अब धधक रहा है   
फिर भी कहते हो-   
हम जलते क्यों नहीं हैं।   

हाँ! यह सत्य अब मान लिया 
सारे उपक्रम धाराशायी हुए   
धधकते सवालों की चिनगारी 
कलेजे को राख बना चुकी है   
साबुत मन तरह-तरह के सामंजस्य में उलझा   
चिन्दी-चिन्दी बिखर चुका है।   

बड़ी जुगत से चाँदनी वस्त्रों में लपेटकर   
जिस्म के मांस की पोटली बनाई है   
दागते सवालों से झुलसी पोटली 
सफ़र में साथ है   
ज़रा-सा थमो   
जिस्म की यह पोटली 
दिल की तरह खुलकर   
अब बस बिखरने को है।  

-जेन्नी शबनम (25. 11. 2020) 
______________________

12 टिप्‍पणियां:

शिवम कुमार पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन।

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२६-११-२०२०) को 'देवोत्थान प्रबोधिनी एकादशी'(चर्चा अंक- ३८९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

लाजवाब

शुभा ने कहा…

वाह!बेहतरीन अभिव्यक्ति ।

शारदा अरोरा ने कहा…

behtreen ...Zenni ji

ऋता शेखर 'मधु' ने कहा…

ओह! मार्मिक !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सार्थक और मर्मस्पर्शी रचना।

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

सच्चाई से रूबरू कराती ह्रिदय्स्पर्शी रचना...।मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है ...सादर..।

Shantanu Sanyal शांतनु सान्याल ने कहा…

सुन्दर सृजन - नमन सह।

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर = RAJA Kumarendra Singh Sengar ने कहा…

दिल की तरह यदि जिस्म की पोटली बन जाए तो फिर बहुत से सवाल अपने आप मिट जाएँ.
बहुत गहराई भरी रचना

सधु चन्द्र ने कहा…

वाह!
लाजवाब!!!
सुंदर रचना।
क्या कहने!!!