अब नहीं हारेगी औरत
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जीवन के हर जंग में हारती है औरत
ख़ुद से लड़ती-भिड़ती हारती है औरत
सुख समेटते-समेटते हारती है औरत
दुःख छुपाते-छुपाते हारती है औरत
भावनाओं के जाल में उलझी हारती है औरत
मन पर पैबंद लगाते-लगाते हारती है औरत
टूटे रिश्तों को जोड़ने में हारती है औरत
परायों से नहीं अपनों से हारती है औरत
पति-पत्नी के रिश्तों में हारती है औरत
पिता-पुत्र के अहं से हारती है औरत
बेटा-बेटी के द्वन्द्व से हारती है औरत
बहु-दामाद के छद्म से हारती है औरत
दुनियादारी के संघर्ष से हारती है औरत
दुनिया की भीड़ में गुम हारती है औरत
अपनी चुप्पी से ही सदा हारती है औरत
तोहमतों के बाज़ार से हारती है औरत
ख़ुद सपनों को तोड़के हारती है औरत
ख़ुद को साबुत रखने में हारती है औरत
जीवन भर हँस-हँसकर हारती है औरत
जाने क्यों मरकर भी हारती है औरत
जीवन के हर युद्ध में हारती है औरत।
अब हर हार को जीत में बदलेगी औरत
किसी भी युद्ध में अब नहीं हारेगी औरत।
- जेन्नी शबनम (8. 3. 2021)
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19 टिप्पणियां:
सुंदर सारगर्भित संदेशपूर्ण रचना..महिला दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं एवम बधाई..समय मिले तो ब्लॉग पर अवश्य पधारें..सादर नमन..
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 09 मार्च 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर सृजन
बहुत सुन्दर।
औरत के चमत्कार को नमन।
औरत की वजह से हारती है औरत
सामयिक सार्थक लेखन... साधुवाद
बहुत सुंदर
आपकी इस बात से सहमति ।
लिखी थी एक कविता "स्वयं सिद्धा बन जाओ "।
अब अपनी हार को आ गया है जीत में बदलना । नहीं हारेगी औरत ।
सुंदर रचना
ऐसा ही होगा, जब ठान लिया ।
धर्म संकट में डालने वाले प्रसंगों का ज़िक्र किया है आपने । ये अदृश्य पर निरंतर कचोटने वाली उलझनें चुनौती बन जाती हैं, पर कही नहीं जाती हैं । अभिनंदन ।
अब हर हार को जीत में बदलेगी औरत
किसी भी युद्ध में अब नहीं हारेगी औरत।
..बिलकुल बहुत हुआ, बहुत सहा अब नहीं
अब ऐसा क्या हो रहा है जो नहीं हारेगी
ऐसा क्या परिवर्तन आ गया जो नहीं हारेगी
जब तक वो आश्रित है
जब तक उसको समानता का सच्चा अर्थ न पता होगा
जब तक डोली में जाती रहेगी
जब तक पायल को पायल पाएगी
जब तक गले में पड़ी हुई जंजीर मंगलसूत्र लगेगा
तब तक आपकी कविता की आखिरी 2 पंक्तियां छोड़ सभी चीजें जारी रहेगी। हमेशां।
हौसलों में बहुत हवा भर ली
अब जंग लगी सोच की बारी है।
इसी विषय मेरी नई रचना
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-3-21) को "नई गंगा बहाना चाहता हूँ" (चर्चा अंक- 4,001) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
Very Nice your all post. i love so many & more thoughts i read your post its very good post and images . thank you for sharing
स्त्री विमर्श की बहुत अच्छी और सुंदर कविता
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी पधारें
फॉलो करें
सादर
मेरी रचना की सराहना के लिए आप सभी का बहुत आभार!
जिज्ञासा जी, अवश्य आपके ब्लॉग पर आऊँगी.
संगीता जी, स्वयंसिद्धा बं जाओ का लिंक दीजियेगा. पढने की उत्सुकता हो रही.
रोहितास जी, बिल्कुल सही कहा कि अब ऐसा क्या हुआ जो अब नहीं हारेगी औरत; जबतक आश्रिता रहेगी हारेगी ही औरत. यही बदलाव तो अब आ रहा है; काफी कम ही सही. लेकिन दिन ब दिन मानसिकता में परिवर्तन बढ़ रहा है, तो निःसंदेह कुछ सदी बाद समानता आ जाएगी.
ज्योति खरे जी, इधर नेट से दूर थी, तो अनुपस्थित रही. अवश्य आऊँगी आपके ब्लॉग पर.
आप सभी का हृदय से धन्यवाद.
बहुत बहुत सुन्दर
बेहतरीन रचना आदरणीया
सब कुछ ठीक करने की जद्दोजहद में हार जीत के इस खेल में आखिर घिस-पिट रही है आज भी औरत।अपने आप को क्यों और किसके सामने सिद्ध कर रही है औरत।
विचारणीय सुन्दर एवं सार्थक सृजन।
'जीवन भर हँस-हँसकर हारती है औरत'
- यह भी एक सच है पर जब तुल जाती है तो वही जीतती भी है.
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