बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

16. सुलगती ज़िन्दगी (क्षणिका)

सुलगती ज़िन्दगी

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मेरी नसों में लहू बनकर इक दर्द पिघलता है
मेरी साँसों में ख़ुमार बनकर इक ज़ख़्म उतरता है
इक ठंडी आग है समाती है सीने में मेरे, धीरे-धीरे
और उसकी लपटें जलाती है ज़िन्दगी मेरी, धीमे-धीमे
न राख है न चिंगारी पर ज़िन्दगी है कि सुलगती ही रहती है

- जेन्नी शबनम (फ़रवरी 17, 2009)
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