फ़ितरत
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थोड़ा फ़लसफ़ा थोड़ी उम्मीद लेकर
चलो फिर से शुरू करते हैं सफ़र
जिसे छोड़ा था हमने तब
जब ज़िन्दगी बहुत बेतरतीब हो गई थी
और दूरी ही महज़ एक राह बची थी
साथ न चलने और साथ न जीने के लिए,
साथ सफ़र पर चलने के लिए
एक दूसरे को राहत देनी होती है
ज़रा-सा प्रेम, ज़रा-सा विश्वास चाहिए होता है
और वह हमने खो दिया था
ज़िन्दगी को न जीने के लिए
हमने ख़ुद मज़बूर किया था,
सच है बीती बातें न भुलाई जा सकती हैं
न सीने में दफ़न हो सकती हैं
चलो, अपने-अपने मन के एक कोने में
बीती बातों को पुचकारकर सुला आते हैं
अपने-अपने मन पर एक ताला लगा आते हैं,
क्योंकि अब और कोई ज़रिया भी तो नहीं बचा
साँसों की रवानगी और समय से साझेदारी का
अब यही हमारी ज़िन्दगी है और
यही हमारी फ़ितरत भी।
- जेन्नी शबनम (20. 2. 2020)
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6 टिप्पणियां:
नमस्ते,
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में रविवार 23 फरवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह!बेहतरीन!!
बीती बातों को पुचकार कर सुला आते हैं
अपने-अपने मन पर एक ताला लगा आते हैं,
शानदार प्रस्तुति ,
बहुत सुंदर।
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(18-02-2020 ) को " अतिथि देवो भवः " (चर्चा अंक - 3622) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सही बात है अब यही हमारी जिंदगी है और
यही हमारी फ़ितरत भी।
बहुत सुन्दर... उत्कृष्ट सृजन
वाह!!!
बहुत बढ़िया
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