सोमवार, 15 जुलाई 2019

619. वर्षा (10 ताँका)

वर्षा    

***   

1.
तपती धरा   
तन भी तप उठा   
बदरा छाए   
घूम-घूम गरजे   
मन का भौंरा नाचे।   

2.   
कूकी कोयल   
नाचे है पपीहरा   
देख बदरा   
चहके है बगिया   
नाचे घर-अँगना।   

3.   
ओ रे बदरा   
कितना तड़पाया   
अब तू माना   
तेरे बिना अटकी   
संसार की मटकी।   

4.   
गाए मल्हार   
घनघोर घटाएँ   
नभ मुस्काए   
बूँदें ख़ूब झरतीं    
रिमझिम फुहार।   

5.   
बरसा पानी   
याद आई है नानी   
है अस्त व्यस्त   
जीवन की रफ़्तार    
जलमग्न सड़कें।   

6.   
पौधे खिलते   
किसान हैं हँसते   
वर्षा के संग   
मन-मयूर नाचे   
बूँदों के संग खेले।   

7.   
झूमती धरा   
झूमता है गगन   
आई है वर्षा   
लेकर ठण्डी हवा   
खिल उठा चमन।   

8.   
घनी प्रतीक्षा   
अब जाकर आया   
पाहुन मेघ    
चाय और पकौड़ी   
पाहुना ख़ूब खाये।   

9.   
पानी बरसा   
झर-झर झरता   
जैसे झरना,   
सुन मेरे बदरा   
मन हुआ बावरा।   

10.   
हे वर्षा रानी   
यूँ रूठा मत करो   
आ जाया करो   
रवि से लड़कर   
बरसो जमकर।   

-जेन्नी शबनम (6.7.2019)   
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गुरुवार, 4 जुलाई 2019

618. जीवन-पथ (चोका - 12)

जीवन-पथ (चोका)   

*******   

जीवन-पथ   
उबड़-खाबड़-से 
टेढ़े-मेढ़े-से   
गिरते-पड़ते भी   
होता चलना,   
पथ कँटीले सही   
पथरीले भी   
पाँव ज़ख़्मी हो जाएँ   
लाखों बाधाएँ   
अकेले हों मगर   
होता चलना,   
नहीं कोई अपना   
न कोई साथी   
फैला घना अन्धेरा   
डर-डर के   
कदम हैं बढ़ते   
गिर जो पड़े   
खुद ही उठकर   
होता चलना,   
खुद पोंछना आँसू   
जग की रीत   
समझ में तो आती;   
पर रुलाती   
दर्द होता सहना   
चलना ही पड़ता !   

- जेन्नी शबनम (8. 6. 2019) 

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सोमवार, 1 जुलाई 2019

617. सरमाया (क्षणिका)

सरमाया   

*******   

ये कैसा दौर आया है, पहर-पहर भरमाया है   
कुछ माँगूँ तो ईमान मरे, न माँगूँ तो ख़्वाब मरे   
क़िस्मत से धक्का-मुक्की, पोर-पोर घबराया है   
जद्दोज़हद में युग बीते, यही मेरा सरमाया है।   

- जेन्नी शबनम (1. 7. 2019)   
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सोमवार, 17 जून 2019

616. कड़ी

कड़ी   

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अतीत की एक कड़ी   
मैं ख़ुद हूँ   
मन के कोने में, सबकी नज़रों से छुपाकर   
अपने पिता को जीवित रखा है   
जब-जब हारती हूँ   
जब-जब अपमानित होती हूँ   
अँधेरे में सुबकते हुए, पापा से जा लिपटती हूँ   
 ख़ूब रोती हूँ, ख़ूब ग़ुस्सा करती हूँ   
जानती हूँ पापा कहीं नहीं   
थककर ख़ुद ही चुप हो जाती हूँ   
यह भूलती नहीं, कि रोना मेरे लिए गुनाह है   
चेहरे पे मुस्कान, आँखों पर चश्मा   
सब छुप जाता है ज़माने से   
पर हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा   
सिमटती जा रही हूँ, मिटती जा रही हूँ   
जीने की आरज़ू, जीने का हौसला   
सब शेष हो चुका है   
न रिश्ते साथ देते हैं, न रिश्ते साथ चलते हैं   
दर्द की ओढ़नी, गले में लिपटती है   
पिता की बाँहें, कभी रोकने नहीं आतीं   
नितांत अकेली मैं   
अपनों द्वारा कतरे हुए परों को, सहलाती हूँ   
कभी-कभी चुपचाप   
फेविकोल से परों को चिपकाती हूँ   
जानती हूँ, यह खेल है, झूठी आशा है   
पर मन बहलाती हूँ   
हार अच्छी नहीं लगती मुझे   
इसलिए ज़ोर से ठहाके लगाती हूँ   
जीत का झूठा सच सबको बताती हूँ   
बस अपने पापा को सब सच बताती हूँ   
ज़ोर से ठहाके लगाती हूँ   
मन बहलाती हूँ।   

- जेन्नी शबनम (17. 6. 2019)   
(पितृ-दिवस पर) 
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शुक्रवार, 7 जून 2019

615. नहीं आता (अनुबन्ध/तुकान्त)

नहीं आता   

*******   

ग़ज़ल नहीं कहती   
यूँ कि मुझे कहना नहीं आता   
चाहती तो हूँ मगर   
मन का भेद खोलना नहीं आता।   

बसर तो करनी है पर   
शहर की आबोहवा बेगानी लगती   
रूकती हूँ समझती हूँ   
पर दमभरकर रोना नहीं आता।   

सफ़र में अब जो भी मिले   
मुमकिन है मंज़िल मिले न मिले   
परवाह नहीं पाँव छिल गए   
दमभर भी हमें ठहरना नहीं आता।   

मायूसी मन में पलती रही   
अपनों से ज़ख़्म जब भी गहरे मिले   
कोशिश की थी कि तन्हा चलूँ   
पर अपने साथ जीना नहीं आता।   

यादों के जंजाल में उलझके   
बिसुराते रहे हम अपने आज को   
हँस-हँसके ग़म को पीना होता   
पर 'शब' को यूँ हँसना नहीं आता।   

- जेन्नी शबनम (7. 6. 2019)   
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शनिवार, 1 जून 2019

614. नज़रबंद

नज़रबंद   

*******   

ज़िन्दगी मुझसे भागती रही   
मैं दौड़ती रही, पीछा करती रही   
एक दिन आख़िर वो पकड़ में आई   
ख़ुद ही जैसे मेरे घर में आई   
भागने का सबब पूछा मैंने   
झूठ बोल बहला दिया मुझे,   
मैं अपनी खामी ढूँढती रही   
आख़िर ऐसी क्या कमी थी   
जो ज़िन्दगी मुझसे कह गई   
मेरी सोच, मेरी उम्र या फिर जीने का शऊर   
हाँ! भले मैं बेशऊरी   
पर वक़्त से जो सीखा वैसे ही तो जिया मैंने   
फिर अब?   
आजीज आ गई ज़िन्दगी   
एक दिन मुझे प्रेम से दुलारा, मेरे मन भर मुझे पुचकारा   
हाथों में हाथ लिए मेरे, चल पड़ी झील किनारे   
चाँद तारों की बात, फूल और ख़ुशबू थी साथ   
भूला दिया मैंने उसका छल   
आँखें मूँद काँधे पे उसके रख दिया सिर   
मैं ज़िन्दगी के साथ थी   
नहीं-नहीं मैं अपने साथ थी   
फिर हौले से उसने मुझे झिंझोड़ा   
मैंने आँख मूँदे मुस्कुरा कर पूछा-   
बोलो ज़िन्दगी, अब तो सच बताओ   
क्यों भागती रही तुम तमाम उम्र   
मैं तुम्हारा पीछा करती रही ताउम्र   
जब भी तुम पकड़ में आई   
तुमने स्वप्नबाग दिखा मुझसे पीछा छुड़ाया,   
फिर ज़िन्दगी ने मेरी आँखों में देखा   
कहा कि मैं झील की सुन्दरता देखूँ   
अपना रूप उसमें निहारूँ,   
मैं पागल फिर से छली गई   
आँखें खोल झील में ख़ुद को निहारा   
मेरी ज़िन्दगी ने मुझे धकेल दिया   
सदा के लिए उस गहरी झील में   
बहुत प्रेम से बड़े धोखे से,   
अब मैं झील में नज़रबंद हूँ   
ज़िन्दगी की बेवफाई से रंज हूँ   
अब न ज़िन्दगी का कारोबार होगा   
न ज़िन्दगी से मुलाक़ात होगी   
अब कौन सुनेगा मुझको कभी   
न किसी से बात होगी।    

- जेन्नी शबनम (1. 6. 2019)   
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बुधवार, 1 मई 2019

613. अधिकार और कर्त्तव्य

अधिकार और कर्त्तव्य  
 
***   

अधिकार है तुम्हें   
कर सकते हो हर वह काम 
जो जायज़ नहीं है   
पर हमें इजाज़त नहीं कि हम प्रतिरोध करें 
कर्त्तव्य है हमारा   
सिर्फ़ वह बोलना जिससे तुम ख़ुश रहो   
भले हमारी आत्मा मर जाए। 
   
इस अधिकार और कर्त्तव्य को   
परिभाषित करने वाले तुम   
हमें धर्म का वास्ता देते हो   
और स्वयं अधर्म करते रहते हो। 
  
तुम्हारे अहंकार के बाण से   
हमारी साँसें छलनी हो चुकी हैं   
हमारी रगों का रक्त जमकर काला पड़ गया है   
तुम्हारा पेट भरने वाले हम   
तुम्हारे सामने हाथ जोड़े, भूख से मर रहे हैं   
और तुम हो कि हमसे धर्म-धर्म खेल रहे हो   
हमें आपस में लड़ाकर सत्ता-सत्ता खेल रहे हो। 
  
तुमने बताया था कि   
मुक्ति मिलेगी हमें पूर्व जन्म के पापों से   
गर मन्दिर-मस्जिद को अपना देह, हम दान करें   
तुम्हारे बताए राहों पर चलकर, तुम्हारा सम्मान करें।
   
अब हमने सब कुछ है जाना   
सदियों बाद तुम्हें है पहचाना   
हमें मुक्ति नहीं मिली   
न रावण वध से, न गीता दर्शन से   
न तुम्हारे सम्मान से 
न अपने आत्मघात से। 
  
युगों-युगों से त्रासदी झेलते हम   
तुम्हारे बताए धर्म को अब नकार रहे हैं   
तुमने ही सारे विकल्प छीने हैं हमसे   
अब हम अपना रुख़ मोड़ रहे हैं। 
  
बहुत सहा है अपमान हमने   
नहीं है अब कोई फ़रियाद तुमसे   
तुम्हारे हर वार का अब जवाब होगा   
जुड़े हाथों से अब वार होगा। 
  
हमारे बल पर जीने वाले   
अब अपना तुम अंजाम देखो   
तुम होशियार रहो, तुम तैयार रहो   
अब आर या पार होगा   
जो भी होगा सरेआम होगा। 
  
इन्क़िलाब का नारा है   
सिर्फ़ तुम्हारा नहीं   
हिन्दुस्तान हमारा है।   

-जेन्नी शबनम (1.5.2019)   
(श्रमिक दिवस)
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रविवार, 31 मार्च 2019

612. प्रकृति (20 हाइकु) पुस्तक 106-109

प्रकृति    

*******   

1.   
प्यार मिलता   
तभी खिलखिलाता   
प्रकृति-शिशु।   

2.   
अद्भुत लीला   
प्रकृति प्राण देती   
संस्कृति जीती।   

3.   
प्रकृति हँसी   
सुहावना मौसम   
खिलखिलाया।   

4.   
धोखा पाकर   
प्रकृति यूँ ठिठकी   
मानो लड़की।   

5.   
कृत संकल्प   
प्रकृति का वंदन   
स्वस्थ जीवन।   

6.   
मत रूलाओ,   
प्रकृति का रूदन   
ध्वस्त जीवन।   

7.   
प्रकृति क्रुद्ध,   
प्रलय है समीप   
हमारा कृत्य।   

8.   
रंग बाँटती   
प्रकृति रंगरेज़   
मनभावन।   

9.   
मौसमी हवा   
नाचती गाती चली   
प्रकृति ख़ुश।   

10.   
घना जंगल   
लुभावना मौसम   
प्रकृति नाची।   

11.   
धूल व धुआँ   
थकी हारी प्रकृति   
बेदम साँसें।   

12.   
साँसें उखड़ी   
अधमरी प्रकृति,   
मानव दैत्य।   

13.   
ख़ंजर भोंका   
मर गई प्रकृति   
मानव ख़ूनी।   

14.   
खेत बेहाल   
प्रकृति का बदला   
सूखा तालाब।   

15.   
सुकून देती   
गहरी साँस देती   
प्रकृति देवी।   

16.   
बड़ा सताया   
कलंकित मानव,   
प्रकृति रोती।   

17.   
सखी सहेली   
ऋतुएँ व प्रकृति   
दुःख बाँटती।   

18.   
हरी ओढ़नी   
भौतिकता ने छीनी   
प्रकृति नग्न।   

19.   
किससे बाँटें   
मुरझाई प्रकृति   
अपनी व्यथा।   

20.
जीभर लूटा
प्रकृति को दुत्कारा
लोभी मानव।   

- जेन्नी शबनम (29. 3. 2019)   
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गुरुवार, 28 मार्च 2019

611. जीवन मेरा (चोका - 11)

जीवन मेरा (चोका)   

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मेरे हिस्से में   
ये कैसा सफ़र है   
रात और दिन   
चलना जीवन है,   
थक जो गए   
कहीं ठौर न मिला   
चलते रहे   
बस चलते रहे,   
कहीं न छाँव   
कहीं मिला न ठाँव   
बढते रहे   
झुलसे मेरे पाँव,   
चुभा जो काँटा   
पीर सह न पाए   
मन में रोए   
सामने मुस्कुराए,   
किसे पुकारें   
मन है घबराए   
अपना नहीं   
सर पे साया नहीं,   
सुख व दु:ख   
आँखमिचौली खेले   
रोके न रुके   
तंज हमपे कसे,   
अपना सगा   
हमें छला हमेशा   
हमारी पीड़ा   
उसे लगे तमाशा,   
कोई पराया   
जब बना अपना   
पीड़ा सुन के   
संग-संग वो चला,   
किसी का साथ   
जब सुकून देता   
पाँव खींचने   
जमाना है दौड़ता,   
हमसफर   
काश ! कोई होता   
राह आसान   
सफर पूरा होता,   
शाप है हमें   
कहीं न पहुँचना   
अनवरत   
चलते ही रहना।   
यही जीवन मेरा।   

- जेन्नी शबनम (26. 3. 2019)   

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रविवार, 24 मार्च 2019

610. परम्परा

परम्परा   

*******   
  
मैं उदासी नहीं चाहती थी   
मैं तो खिलखिलाना चाहती थी   
आज़ाद पंक्षियों-सा उड़ना चाहती थी   
हर रोज़ नई धुन गुनगुनाना चाहती थी   
और यह सब अनकहा भी न था   
हर अरमान चादर-सा बिछा दिया था तुम्हारे सामने   
तुमने सहमति भी जताई थी कि तुम साथ दोगे   
लेकिन जाने यह क्योंकर हुआ   
पर मैं वक़्त को दोष न दूँगी   
वक़्त ने तो बहुत साथ दिया   
पर तुम बिसुर गए सब   
एक-एककर मेरे सपनों को   
होलिका के साथ तुमने जला दिया   
मुझसे कहा कि यह परम्परा है   
मैं उदास हुई पर इंकार न किया   
तुम्हारा कहा सिर माथे पर।   

- जेन्नी शबनम (9.3.2019)   
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गुरुवार, 21 मार्च 2019

609. रंगों की होली (10 हाइकु) पुस्तक - 105, 106

रंगों की होली    

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1.   
रंगो की होली   
गाँठ मन की खोली   
प्रीत बरसी।   

2.   
पावन होली   
मन है सतरंगी   
सूरत भोली।   

3.   
रंगों की झोली   
आसमान ने फेंकी   
धरती रँगी।   

4.   
हवा में घुले   
रंग-भरे जज़्बात   
होली के साथ।   

5.   
होली रंग में   
दर्द के रंग घुले   
मन निश्छल।   

6.   
होली पहुँची   
छोटे पग धरके   
इस बसंत।   

7.   
पाहुन होली   
ज़रा देर ठहरी   
चलती बनी।   

8.   
रंग गुलाल   
सर-सर गिरते   
खेले कबड्डी।   

9.   
न पी, न पाई    
ये कैसी होली आई   
फीकी मिठाई।   

10.   
रंगों का मेला   
नहीं कोई पहरा   
गुम चेहरा।   

- जेन्नी शबनम (20. 3. 2019)   
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मंगलवार, 19 मार्च 2019

608. स्वीकार (क्षणिका)

स्वीकार   

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मैं अपने आप से मिलना नहीं चाहती   
जानती हूँ ख़ुद से मिलूँगी तो   
जी नहीं पाऊँगी   
जीवित रहने के लिए   
मैंने उन सभी अनुबंधों को स्वीकार किया है   
जिसे मेरा मन नहीं स्वीकारता है   
विकल्प दो ही थे मेरे पास-   
जीवित रहूँ या ख़ुद से मिलूँ।     

- जेन्नी शबनम (19. 3. 2019)   
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शुक्रवार, 8 मार्च 2019

607. पानी और स्त्री

पानी और स्त्री 

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बचपन में पढ़ा-   
पानी होता है रंगहीन गंधहीन   
जिसे जहाँ रखा उस साँचे में ढला    
ख़ूब गर्म किया भाप बन उड़ गया   
ख़ूब ठंडा किया बर्फ़ बन जम गया   
पानी के साथ उगता है जीवन   
पनपती हैं सभ्यताएँ   
पानी गर हुआ लुप्त   
संसार भी हो जाएगा विलुप्त।   
फिर भी पानी के साथ होता है खिलवाड़   
नहीं होता उसका सम्मान   
नहीं करते उसका बचाव   
न ही करते उसका संरक्षण   
न ही करते उसका प्रबंधन   
जबकि जानते हैं पानी नहीं तो दुनिया नहीं।   
बचपन में जो था पढ़ा   
अब जीवन ने है समझा   
स्त्रियाँ पानी हैं   
वक़्त ने जहाँ चाहा उस साँचे में ढाल दिया   
कभी आरोपों से जम गई   
तो व्याकुलता से लिपटकर भाप-सी पिघल गई   
स्त्रियों ने किया सर्जन   
नवजीवन का किया पोषण   
फिर भी मानी गई सब पर बोझ   
सभी चाहते नहीं मिले उसको कोख   
पानी-सी न सुरक्षित की गई   
पानी-सी न संरक्षित हुई  
पानी बिन होता अकाल   
स्त्री बिन मिट जाएगा संसार।   
पानी-सी स्त्री है   
स्त्री-सा पानी है   
सीरत अलग मगर   
स्त्री और पानी जीवन है।   

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2019)   
(महिला दिवस)
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मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

606. आँख (आँख पर 20 हाइकु) पुस्तक - 103-105

आँख    

*******   

1.   
पट खोलती   
दुनिया निहारती   
आँखें झरोखा।   

2.   
आँखों की भाषा   
गर समझ सको   
मन को जानो।   

3.   
गहरी झील   
आँखों में है बसती   
उतरो ज़रा।   

4.   
आँखों का नाता   
जोड़ता है गहरा   
मन से नाता।   

5.   
आँख का पानी   
मरता व गिरता   
भेद समझो।   

6.   
बड़ी लजाती   
अँखियाँ भोली-भाली   
मीत को देख।   

7.   
शर्म व हया   
आँखें करती बयाँ   
उनकी भाषा।   

8.   
नन्ही आँखों में   
विस्तृत जग सारा   
सब समाया।   

9.   
ख़ूब देखती   
सुन्दर-सा संसार   
आँखें दुनिया।   

10.   
छल को देख   
होती हैं शर्मसार   
आँखें क्रोधित।   

11.   
ख़ूब पालती   
मनचाहे सपने   
दुलारी आँखें।   

12.   
स्वप्न छिपाती   
कितनी है गहरी   
नैनों की झील।   

13.   
बिना उसके   
अँधियारा पसरा   
अँखिया ज्योति।   

14.   
जीभर देखो   
रंग बिरंगा रूप   
आँखें दर्पण।   

15.   
मूँदी जो आँखें   
जग हुआ ओझल   
साथ है स्वप्न।   

16.   
जीवन ख़त्म    
संसार से विदाई   
अँखियाँ बंद।   

17.   
आँख में पानी   
बड़ा गहरा भेद   
आँख का पानी।   

18.   
भेद छुपाते 
सुख-दुःख के साथी 
नैना हमारे।   

19.   
मन की भाषा   
पहचाने अँखियाँ   
दिखाती आशा।   

20.   
आँखियाँ मूंदी   
दिख रहा अतीत   
मन है शांत।   

- जेन्नी शबनम (19. 2. 2019)   
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मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

605. बसन्त (क्षणिका)

बसन्त   

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मेरा जीवन मेरा बंधु   
फिर भी निभ नहीं पाता बंधुत्व   
किसकी चाकरी करता नित दिन   
छुट गया मेरा निजत्व   
आस उल्लास दोनों बिछुड़े   
हाय! जीवन का ये कैसा बसंत।  

- जेन्नी शबनम (12. 2. 2019)
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शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

604. काला जादू (पुस्तक-96)

काला जादू   

*******   

जब भी, दिल खोलकर हँसती हूँ   
जब भी, दिल खोलकर जीती हूँ   
जब भी, मोहब्बत के आग़ोश में साँसें भरती हूँ   
जब भी, संसार की सुन्दरता को, दामन में समेटती हूँ   
न जाने कब, मैं ख़ुद को नज़र लगा देती हूँ   
मुझे मेरी ही नज़र लग जाती है   
हँसना, जीना, अचानक गुम हो जाता है   
मुहब्बत के आसमान से, ज़मीन पर, पटक दी जाती हूँ   
जिन फूलों को थामे थी, उनमें काँटें उग जाते हैं   
और मेरी ऊँगलियाँ ही नहीं   
तक़दीर की लकीरें भी, लहूलुहान हो जाती हैं   
दौड़ती हूँ, भागती हूँ, छटपटाती हूँ   
चौकन्ना होकर, चारों तरफ़ निहारती हूँ   
मैंने किसी का, कुछ भी तो न छीना, न बिगाड़ा   
फिर मेरे जीवन में, रेगिस्तान कहाँ से पनप जाता है   
कैसे आँखों में, आँसू की जगह, रक्त-धार बहने लगती है   
कौन पलट देता है, मेरी क़िस्मत    
कौन है, जो काला जादू करता है   
कोई तो इतना अपना नहीं, किसी से कोई रंजिश भी नहीं   
फिर यह सब कैसे?   
हाँ! शायद मुझे मेरी ही नज़र लग जाती है   
मैंने ही ख़ुद पर काला जादू किया है   
अल्लाह! कोई इल्म बता   
कोई कारामात कर दे   
मिटने से पहले चाहती हूँ   
हँसना, जीना, मुहब्बत   
बस एक बार   
बस एक बार।     

- जेन्नी शबनम (2. 2. 2019)
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सोमवार, 28 जनवरी 2019

603.वक़्त (चोका - 10)

वक़्त (चोका)   

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वक्त की गति   
करती निर्धारित   
मन की दशा   
हो मन प्रफुल्लित   
वक़्त भागता   
सूर्य की किरणों-सा   
मनमौजी-सा   
पकड़ में न आता   
मन में पीर   
अगर बस जाए   
बीतता नहीं   
वक़्त थम-सा जाता   
जैसे जमा हो   
हिमालय पे हिम   
कठोरता से   
पिघलना न चाहे,   
वक़्त सजाता   
तोहफ़ों से ज़िन्दगी   
निर्ममता से   
कभी देता है सज़ा   
बिना कुसूर   
वक़्त है बलवान   
उसकी मर्ज़ी   
जिधर ले के चले   
जाना ही होता   
बिना किए सवाल   
बिना दिए जवाब !   

- जेन्नी शबनम (28. 1. 2019)   

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शनिवार, 26 जनवरी 2019

602. प्रजातन्त्र

प्रजातन्त्र  
 
***   

मुझपर इल्ज़ाम है उनकी ही तरह, जो कहते हैं    
''देश के माहौल से डर लगता है''   
हाँ! मैं मानती हूँ मुझे भी अब डर लगता है   
सिर्फ़ अपने लिए नहीं   
अपनों के लिए डर लगता है। 
  
उन्हें मेरे कहे पर आपत्ति है   
उनके कहे पर आपत्ति है   
वे कहते हैं चार सालों से   
न कहीं बम विस्फोट हो रहे हैं   
न उन दिनों की तरह इमरजेन्सी है   
जब बेक़सूरों को पकड़कर जेल भेजा जाता था   
न इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद का   
सिख-विरोधी दंगा है   
जब हर एक सिख असुरक्षित था और डरा हुआ कि   
न जाने कब उनकी हत्या कर दी जाए।
   
वे कहते हैं   
यह डर उन्हें क्यों, जिनके पास धन भरपूर है   
जो जब चाहे देश छोड़कर कहीं और बस सकते हैं   
यह डर उन्हें क्यों 
जो 1975 और 1984 में ख़ामोश रहे   
तब क्यों नहीं कुछ कहा, तब क्यों नहीं डर लगा?   

मैं स्वीकार करती हूँ, यह सब दुर्भाग्यपूर्ण था   
परन्तु सिर्फ़ इन वज़हों से   
1989 का भागलपुर दंगा, 2002 का गुजरात दंगा   
या अन्य दंगा-फ़साद जायज़ नहीं हो सकता।
   
मॉब लिंचिग, बलात्कार, एसिड अटैक, हत्या   
और न जाने कितने अपराध   
हर रोज़ कुछ नए अपराध   
क्या इसके ख़िलाफ़ बोलना ग़ुनाह है?   
डर और ख़ौफ़ के साए में जी रही है प्रजा   
क्या यही प्रजातन्त्र है? 
  
जुर्म के ख़िलाफ़ बोलना अगर ग़ुनाह है   
तो मैं ग़ुनाह कर रही हूँ   
समाज में शान्ति चाहना अगर ग़ुनाह है   
तो मैं ग़ुनाह कर रही हूँ।   
मैं खुलेआम क़ुबूल कर रही हूँ   
हाँ! मुझे डर लगता है   
मुझे आज के माहौल से डर लगता है।

-जेन्नी शबनम (26.1.2019)   
(गणतन्त्र दिवस पर)
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रविवार, 20 जनवरी 2019

601. फ़रिश्ता (क्षणिका)

फ़रिश्ता     

******* 
   
सुनती हूँ कि कोई फ़रिश्ता है 
जो सब का हाल जानता है 
पर मेरा? मुझे नहीं जानता वह 
पर तुम मुझे जानते हो जीने का हौसला देते हो 
जाने किस जन्म में तुम मेरे कौन थे 
जो अब मेरे फ़रिश्ता हो।   

- जेन्नी शबनम (19. 1. 2019)   
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बुधवार, 9 जनवरी 2019

600. अंतर्मन (15 क्षणिकाएँ)

अंतर्मन 

*******   

1. 
अंतर्मन 
***   
मेरे अंतर्मन में पड़ी हैं   
ढेरों अनकही कविताएँ   
तुम मिलो कभी   
तो फ़ुर्सत में सुनाऊँ तुम्हें। 
-०-  

2.
सवाल 
***  
हज़ारों सवाल हैं मेरे अंतर्मन में   
जिनके जवाब तुम्हारे पास हैं   
तुम आओ गर कभी   
फ़ुर्सत में जवाब बताना।
-०-   

3.
प्रश्न 
*** 
मेरा अंतर्मन   
मुझसे प्रश्न करता है-   
आख़िर कैसे कोई भूल जाता है   
सदियों का नाता पलभर में,   
उसके लिए जो कभी अपना नहीं था   
न कभी होगा।
-०-   

4.
मियाद 
***   
हमारे फ़ासले की मियाद   
जाने किसने तय की है   
मैंने तो नहीं की,   
क्या तुमने? 
-०-  

5.
तय 
***   
क्षण-क्षण कण-कण   
तुम्हें ढूँढ़ती रही   
जानती हूँ मैं अहल्या नहीं कि   
तुमसे मिलना तय हो।
-०-   

6.
वापसी 
*** 
कुछ तो हुआ ऐसा    
जो दरक गया मन   
गर वापसी भी हो तुम्हारी   
टूटा ही रहेगा तब भी यह मन।
-०-   

7.
आदत 
***   
रात का अँधेरा अब नहीं डराता मुझे   
उसकी सारी कारस्तानियाँ मुझसे हार गईं   
मैंने अकेले जीने की आदत जो पाल ली।
-०-   

8.
लुका-चोरी 
***   
ढूँढ़कर थक चुकी   
दिन का सूरज, रात का चाँद   
दोनों के साथ, लुका-चोरी खेल रही थी   
वे दग़ा दे गए   
छल से मुझे तन्हा छोड़ गए।
-०-   

9.
तिजोरी
***   
अब आओ तो चलेंगे   
उन यादों के पास   
जिसे हमने छुपाया था   
समय से माँगी हुई तिजोरी में   
शायद कई जन्मों पहले।
-०-   

10.
तजरबा
***   
सोचा न था   
ऐसे तजरबे भी होंगे   
दुनिया की भीड़ में   
सदा हम तन्हा ही रहेंगे।
-०-   

11.
चुप 
***   
चुप-से दिन, चुप-सी रातें   
चुप-से नाते, चुप-सी बातें   
चुप है ज़िन्दगी
कौन करे बातें   
कौन तोड़े सघन चुप्पी।
-०-    

12. 
ग़ुस्सा 
*** 
तुमसे मिलकर जाना यह जीवन क्या है   
बेवजह ग़ुस्सा थी 
ख़ुद को ही सता रही थी   
तुम्हारी एक हँसी 
तुम्हारा एक स्पर्श 
तुम्हारे एक बोल   
मैं जीवन को जान गई।
-०-   

13. 
क्षण 
***  
वक़्त बस एक क्षण देता है   
बन जाएँ या बिगड़ जाएँ   
जी जाएँ या मर जाएँ   
उस एक क्षण को मुट्ठी में समेटना है   
वर्तमान भी वही भविष्य भी वही  
बस एक क्षण   
जो हमारा है सिर्फ़ हमारा।
-०-    

14. 
पाप-पुण्य 
***  
नज़दीकियाँ   
पाप-पुण्य से परे होती हैं   
फिर भी कभी-कभी   
फ़ासलों पे रहकर   
जीनी होती है ज़िन्दगी।
-०-   

15.
तुम 
***   
चाहती हूँ   
धूप में घुसकर तुम आ जाओ छत पर   
बड़े दिनों से मुलाक़ात न हुई   
जीभर कर बात न हुई   
यूँ भी सुबह की धूप देह के लिए ज़रूरी है   
और तुम मेरे मन के लिए। 
-०-  

- जेन्नी शबनम (9. 1. 2019)  
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मंगलवार, 8 जनवरी 2019

599. हे नव वर्ष (नव वर्ष पर 5 हाइकु) पुस्तक- 103

हे नव वर्ष 

*******   

1.   
हे नव वर्ष   
आख़िर आ ही गए,   
पर जल्दी क्यों?   

2.   
उम्मीद जगी-   
अच्छे दिन आएँगे   
नव वर्ष में।   

3.   
मन से करो   
इस्तक़बाल करो   
नव वर्ष का।   

4.   
पिछला साल   
भूलना नहीं कभी,   
मिली जो सीख।   

5.   
प्रेम ही प्रेम   
नव वर्ष कामना,   
सब हों सुखी।   

- जेन्नी शबनम (1. 1. 2019)
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रविवार, 30 दिसंबर 2018

598. वृद्ध जीवन (वृद्धावस्था पर 20 हाइकु)

वृद्ध जीवन 

***   

1.   
उम्र की साँझ   
बेहद डरावनी   
टूटती आस।   

2.   
अटकी साँस   
बुढ़ापे की थकान   
मन बेहाल।   

3.   
वृद्ध की कथा   
कोई न सुने व्यथा   
घर है भरा।   

4.   
दवा की भीड़   
वृद्ध मन अकेला   
टूटता नीड़।   

5.   
अकेलापन   
सबसे बड़ी पीर   
वृद्ध जीवन।   

6.   
उम्र जो हारी   
एक पेट है भारी   
सब अपने।   

7.
धन के नाते   
मन से हैं बेगाने   
वृद्ध बेचारे।   

8.   
वृद्ध से नाता   
अपनों ने था छोड़ा   
धन ने जोड़ा।   

9.   
बदले कौन   
मख़मली चादर   
बुढ़ापा मौन।   

10.   
बहता नीर   
यही जीवन रीत   
बुढ़ापा भारी।   

11.   
उम्र का चूल्हा   
आजीवन सुलगा   
अब बुझता।   

12.   
किससे कहें?   
जीवन-साथी छूटा   
ढेरों शिकवा।   

13.   
बुढ़ापा खोट   
अपने भी भागते   
कोई न ओट।   

14.   
वृद्ध की आस   
शायद कोई आए   
टूटती साँस।   

15.   
ग़म का साया   
बुज़ुर्ग का अपना   
यही है सच।   

16.   
जीवन खिले   
बुज़ुर्गों के आशीष   
ख़ूब जो मिले।   

17.   
टूटा सपना   
कौन सुने दुखड़ा   
वृद्ध अकेला।   

18.   
वक़्त ने कहा-   
याद करो जवानी   
भूलें अपनी।   

19.   
वक़्त है लौटा   
बुज़ुर्ग का सपना   
सब हैं साथ।   

20.
वृद्ध की लाठी
बस गया विदेश
भूला वो माटी। 

-जेन्नी शबनम (24.12.2018)
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मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

597. बातें (क्षणिका)

बातें 

*******   

रात के अँधेरे में ढेरों बातें करती हूँ 
जानती हूँ मेरे साथ 
तुम कहीं नहीं थे, तुम कभी नहीं थे 
पर सोचती रहती हूँ- तुम सुन रहे हो 
और मैं ख़ुद से बातें करती हूँ।   

- जेन्नी शबनम (25. 12. 2018)   
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बुधवार, 19 दिसंबर 2018

596. दुःख (दुःख पर 10 हाइकु)

दुःख (10 हाइकु)   

***

1.   
दुःख का पारा 
सातवें आसमाँ पे   
मन झुलसा।    

2.   
दुःख का लड्डु   
रोज़-रोज़ यूँ खाना   
बड़ा ही भारी।    

3.   
दुःख की नदी 
बेखटके दौड़ती   
बे रोक-टोक।    

4.   
साथी है दुःख   
साथ है हरदम 
छूटे न दम।    

5.   
दुःख की वेला 
कभी तो गुज़रेगी   
मन में आस।    

6.   
दुःख की रोटी 
भरपेट है खाई   
फिर भी बची।    

7.   
दुःख अतिथि 
जाने की नहीं तिथि   
बड़ा बेहया।    

8.   
दुःख की माला 
काश ये टूट जाती   
सुकून पाती।    

9.   
मस्त झूमता 
बड़ा ही मतवाला   
दुःख है योगी।    

-जेन्नी शबनम (28.9.2018)   
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बुधवार, 5 दिसंबर 2018

595. अर्थ ढूँढ़ता (10 हाइकु) पुस्तक -99, 100

अर्थ ढूँढ़ता 

*******   

1.   
मन सोचता-   
जीवन होता है क्या?   
अर्थ ढूँढता।   

2.   
बसंत आया   
रिश्तों में रंग भरा   
मिठास लाया।   

3.   
याद-चाशनी   
सुख की है मिठाई   
मन को भायी।   

4.   
फ़िक्र व चिन्ता   
बना गए दुश्मन,   
रोगी है काया।   

5.   
वक़्त की धूप   
शोला बन बरसी   
झुलसा मन।   

6.   
सुख व दुख   
यादों का झुरमुट   
अटका मन।   

7.   
ख़ामोश बही   
गुमनाम हवाएँ   
ज्यों मेरा मन।   

8.   
मैं सूर्यमुखी   
तुम्हें ही निहारती   
तुम सूरज।   

9.   
मेरी वेदना   
सर टिकाए पड़ी   
मौन की छाती।   

10.   
छटपटाती   
साँसों को तरसती   
बीमार हवा।   

- जेन्नी शबनम (23. 11. 2018)   
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गुरुवार, 22 नवंबर 2018

594. रूठना (क्षणिका)

रूठना   

*******   

जब भी रूठी   
खो देने के भय से ख़ुद ही मान गई   
रूठने की आदत तो बिदाई के वक्त   
खोंइचा से निकाल नइहर छोड़ आई। 

- जेन्नी शबनम (22. 11. 18)   
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शनिवार, 17 नवंबर 2018

593. लौट जाऊँगी

लौट जाऊँगी  

*******   

कब कहाँ खो आई ख़ुद को   
कब से तलाश रही हूँ ख़ुद को   
बात-बात पर कभी रूठती थी   
अब रूठूँ तो मनाएगा कौन   
बार-बार पुकारेगा कौन   
माँ की पुकार में दुलार का नाम   
अब भी आँखों में ला देता नमी   
ठहर गई है मन में कुछ कमी   
अब तो यूँ जैसे मैं बेनाम हो गई   
अपने रिश्तों के परवान चढ़ गई   
कोई पुकारे तो यूँ महसूस होता है   
गर्म सीसे का ग़ुब्बारा ज़ोर से मारा है   
कभी मेरी हँसी और ठहाके गूँजते थे   
अब ख़ुद से ही बतियाते मौसम बदलते हैं   
टी. वी. की शौक़ीन कृषि दर्शन तक देखती थी   
अब टी. वी. तो चलता है मगर क्या देखा याद नहीं   
वक़्त ने एक-एककर मुझसे मुझको छीन लिया   
ख़ुद को तलाशते-तलाशते वक़्त यूँ ही गुज़र गया   
सारे शिकवे शिकायत गंगा से कह आती हूँ   
आँखों का पानी सिर्फ़ गंगा ही देखती है   
वह भी ढाढ़स बँधाने बदली को भेज देती है   
मेरी आँखों-सी बदली भी जब तब बरसती है   
वो मंज़र जाने कब आएगा   
वो सुखद पल जाने कब आएगा   
सारे नातों से घिरी हुई मैं   
एक झूठ के चादर से लिपटी मैं   
सबको ख़ुशामदीद कह जाऊँगी   
तन्हा सफ़र पर लौट जाऊँगी   
खो आई थी कभी ख़ुद को   
ख़ुद से मिलकर   
ख़ुद के साथ चली जाऊँगी   
ख़ुद के साथ लौट जाऊँगी। 

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2018)   
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