शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

716. ज़िन्दगी भी ढलती है

ज़िन्दगी भी ढलती है 

******* 

पीड़ा धीरे-धीरे पिघल, आँसुओं में ढलती है   
वक़्त की पाबन्दी है, ज़िन्दगी भी ढलती है।   

अजब व्यथा है, सुबह और शाम मुझमें नहीं   
बस एक रात ही तो है, जो मुझमें जगती है।   

चाहके भी समेट न पाई, तक़दीर अपनी   
बामुश्किल बसर हो जो, ज़िन्दगी क्यों मिलती है।   

मैं तो ठहरी रही, सदियों से ख़ुद में ही छुपके   
वक़्त की बेबसी, सदियाँ बेतहाशा उड़ती है।   

जाने क्यों हर रास्ता, मुझसे पीछे छूटा है   
मैं अनजानी, ज़िन्दगी बेअख्तियार उड़ती है।   

दिन की कहानी, मुमकिन ही कहाँ कि 'शब' बताए   
रात ज़िन्दगी उसकी, रात की कहानी कहती है।  

- जेन्नी शबनम (9. 4. 2021)

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सोमवार, 29 मार्च 2021

715. होली मइया (होली पर 21 हाइकु)

होली मइया 
(होली पर 21 हाइकु) 

*** 

1. 
उन्मुक्त रंग   
ऋतुराज बसन्त    
फगुआ गाते।   

2. 
बन्धन मुक्त   
भेदभाव से मुक्त,   
होली सन्देश।   

3. 
फगुआ आया   
फूलों ने खिलकर   
रंग बिखेरा।   

4. 
घुँघट काढ़े   
पी की राह अगोरे   
बावरी प्रिया।   

5. 
कैसी ये होली   
नइहर वीरान   
अम्मा न बाबा।   

6. 
माँ को ले गया,   
वक़्त बड़ा निष्ठुर   
होली ले आया।   

7. 
झूम के गाओ   
जोगीरा सा-रा रा-रा   
रंग चिहुँका।   

8. 
रंग गुलाल   
पुआ व पकवान   
होली के यार।   

9. 
होली का पर्व   
सरहद पे पिया,   
कैसे मनाऊँ?   

10. 
मलो गुलाल   
चढ़ा प्रेम का रंग,   
मिटा मलाल।   

11. 
भूलाके रार   
खेलो होली त्योहार,   
ज़िन्दगी छोटी।   

12. 
लेकर आईं   
उत्सव की स्मृतियाँ   
होली का दिन।   

13. 
कैसे थे दिन   
नाचती थीं हवाएँ   
होली के संग।   

14. 
अबकी होली   
पीर लिए है आई   
नहीं है माई।   

15. 
द्वार पे खड़ी   
मनुहार करती   
रँगीली होली।   

16. 
आज के दिन   
होली दुःखहारिणी   
पीर हरती।   

17. 
नशे में धुत्त   
भाँग पीके नाचती   
होली नशेड़ी।   

18. 
होली की दुआ-   
अशुभ का नाश हो   
साल शुभ हो!   

19. 
ठिठका रंग   
देख जग का रंग   
आहत होली।   

20. 
होली का दिन   
मुँह लटका, खड़ा   
टेसू का फूल।   

21. 
होली मइया,   
मन में पीर बड़ा   
रीसेट करो।   

-जेन्नी शबनम (28.3.2021)
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सोमवार, 22 मार्च 2021

714. झील (झील पर 30 हाइकु)

झील 

(झील पर 30 हाइकु) 


***   

1. 
अद्भुत छटा   
आत्ममुग्ध है झील   
ख़ुद में लीन।   

2. 
ता-ता थइया   
थिरकती झील   
वो अलबेली।   

3. 
अनवरत   
हुड़दंग मचाती   
नाचती झील।   

4. 
आसमाँ फेंके   
झील बेचारी हाँफे   
धरती लोके।   

5. 
कोई न साथी   
दुःख किससे बाँटे   
एकाकी झील।   

6. 
पीती रहती   
बड़ी प्यासी है झील   
अपना नीर।   

7. 
रोज़ बुलाती   
स्वप्न सुन्दरी झी ल   
मन लुभाती।   

8. 
अद्भुत झील   
वो कहाँ से है लाती?   
इतना पानी।   

9. 
झील लजाई   
चाँद ने जो पुकारा   
आकर मिला।   

10. 
झील-सा मन   
तेरी यादों की नाव   
बहती रही।   

11. 
ठहरा मन   
हलचल के बिना   
जीवन-झील।   

12. 
बुरा मानती   
प्रदूषण की मारी   
चुप है झील।   

13. 
झील उदास   
कोरोना का क़हर   
कोई न पास।   

14.
झील-झरना   
प्रकृति की संतान   
भाई-बहना।   

15. 
काश बहती   
नदियों-सी घूमती,   
झील सोचती!   

16. 
चाँदनी रात   
झील की आगोश में   
बैठा है चाँद।   

17. 
थका सूरज   
करने को आराम   
झील में कूदा।   

18. 
झील है बेटी   
प्रकृति को है नाज़   
लेती बलैयाँ।   

19. 
झील व चाँद   
लुका-छुपी खेलते   
दिन व रात।   

20. 
झील निगोड़ी   
इतनी ख़ूबसूरत   
फिर भी तन्हा!   

21. 
झील सिखाती-   
ठहरे हुए जीना,   
नहीं हारना।   

22. 
कैसे वो पीती   
प्रदूषित है पानी,   
प्यासी है झील।   

23. 
झील बेहाल   
मीन दम तोड़ती   
बंजर कोख।   

24. 
झील चकोर   
आसमाँ को बुलाती   
बैठी रहती।   

25. 
झील में नभ   
चुपचाप है छुपा   
चाँद ढूँढता।   

26. 
झील-सा स्वप्न   
चौहद्दी में है कैद   
बहा, न मरा।   

27. 
झील-सी आँखें   
देखती स्वप्न पूर्ण   
होती अपूर्ण।   

28. 
झील डरती,   
मानव व्यभिचारी   
प्राण न छीने।   

29. 
झील की गोद   
नरम-मुलायम   
माँ की गोद।   

30. 
झील है थकी,   
सदियों से है थमी   
क्यों यह कमी?  

-जेन्नी शबनम (22.3.2021)
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गुरुवार, 18 मार्च 2021

713. अनाथ

अनाथ 

*** 

काश! हवा या धुआँ बनकर   
आसमान में जाती   
चाँद की चाँदनी में उन तारों को ढूँढती   
जो बचपन में मेरे पापा बन गए   
और अब माँ भी उन्हीं का हिस्सा है।
   
न जाने वहाँ पापा कैसे होंगे   
इतने साल अकेले कैसे रहे होंगे?   
नहीं! नहीं! वे वहाँ किताबें पढ़ते होंगे   
वहाँ से देखते होंगे कि उनके सिद्धान्तों को   
हमने कितना जाना, कितना अपनाया   
वे बहुत बूढ़े हो गए होंगे   
उम्र तो तारों की भी बढ़ती होगी   
क्या मुझे याद करते होंगे?
   
वे तो मुझे पहचानेंगे भी नहीं   
जब वे गए मैं छोटी बच्ची थी   
जब पहचानेंगे 
तो क्या अब भी गोद में बिठाकर दुलार करेंगे?   
बचपन की तरह अब भी रूठने पर मनाएँगे?   
उसी तरह प्यार करेंगे?
   
पर माँ तो पहचानती है   
अभी-अभी तो गई है   
ये विदाई तो अभी बहुत नई है   
मुझे देखते ही बड़े लाड़ से गले लगाएगी   
रोएगी, मुझे ढाढस देगी   
मेरे अनाथ हो जाने पर   
ख़ुद की क़िस्मत पर नाराज़ होगी   
रुँधी हुई उसकी आवाज़ होगी   
वह बताएगी कि कैसे अन्तिम साँस लेते समय   
चारों तरफ़ मुझे ढूँढ रही थी   
एक अन्तिम बार देखने को तड़प रही थी।  
 
कितनी बेबस रही होगी   
कितना कुछ कहना चाहती होगी   
मेरे अकेलेपन के ग़म में रोई होगी   
कितनी आवाज़ दी होगी मुझे   
पर साँसे घुट रही होंगी   
आवाज़ हलक में अटक रही होगी   
वह रो रही होगी, छटपटा रही होगी   
मेरी बहुत याद आ रही होगी   
यम से मिन्नत करती होगी कि ज़रा-सा वक़्त दे-दे   
बेटी से एक बार तो मिल लेने दे। 
  
वक़्त तो सदा का असंवेदनशील   
न पापा के समय मेरे लिए रुका   
न मम्मी के लिए   
अपनी मनमानी कर गया   
मम्मी चली गई   
बिना कुछ कहे चली गई   
तारों में गुम हो गई। 
  
अब कोई नहीं जो मेरा मन समझेगा   
अब कोई नहीं जो मेरा ग़म बाँटेगा   
मेरे हर दर्द पर मुझसे ज़्यादा तड़पेगा   
मेरी फ़िक्र में हर समय बेहाल रहेगा   
न पापा थे, न मम्मी है   
दोनों अलविदा कह गए   
जिनको जाते वक़्त मैंने न सुना, न देखा। 
  
काश! तुम दोनों तारों के झुरमुट में मिल जाओ   
एक बार गले लगा जाओ   
पापा के बिना जीने का हौसला तुमने दिया था   
अब तुम्हारे बिना जीने का हौसला कौन देगा माँ? 
  
दुआ करो मैं हवा या धुआँ बन जाऊँ   
एक बार तुमसे मिल आऊँ   
अपनी फ़रियाद किसे सुनाऊँ   
क्या करूँ कि हवा या धुआँ बन जाऊँ   
एक बार तुमसे मिल आऊँ   
बस एक बार।   
मेरी मम्मी 
-जेन्नी शबनम (18.3.2021) 
(मम्मी की स्मृति/अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस) 
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शुक्रवार, 12 मार्च 2021

712. रिश्ते हैं फूल (रिश्ता पर 20 सेदोका)

रिश्ते हैं फूल 
(रिश्ता पर 20 सेदोका)
******* 

1. 
रिश्ते हैं फूल   
भौतिकता ने छीने   
रिश्तों के रंग-गंध   
मुरझा गए   
नहीं कोई उपाय   
कैसे लौटे सुगंध।   

2. 
रिश्ते हैं चाँद   
समय है बादल   
ओट में जाके छुपा   
समय स्थिर   
ओझल हुए रिश्ते   
अमावस पसरी।   

3. 
पावस रिश्ते   
वक़्त ने किया छल   
छिन्न-भिन्न हो गए   
मिटी है आस   
मन का प्रदूषण   
तिल-तिल के मारे।   

4. 
कुंठित मन   
रिश्ते हो गए ध्वस्त   
धीरे-धीरे अभ्यस्त   
वापसी कैसे?   
जेठ की धूप जैसे   
कठोर जिद्दी मन।   

5. 
रिश्तों का कत्ल   
रक्त बिखरा पड़ा   
अपने ही क़ातिल,   
रोते ही रहे   
कैसे दे पाते सज़ा   
अपराधी अपने।   

6. 
टोना-टोटका   
किसी ने तो है किया   
मृतप्राय है रिश्ता,   
ओझा भी हारा   
झाड़-फूँक है व्यर्थ   
हम हैं असमर्थ।   

7. 
मन आहत   
वक़्त का काला जादू   
रिश्ते बने बोझिल,   
वक़्त मिटाए   
नज़र का डिठौना   
औघड़ निरूपाए।   

8. 
बावरा मन   
रिश्तों की बाट जोहे   
दे करके दुहाई,   
आस का पंछी   
अब भी है जीवित   
शायद प्राण लौटें।   

9. 
रिश्ते पखेरू,   
उड़के चले गए   
दाना-पानी न मिला   
खो गए रिश्ते,   
चुगने नहीं आते   
कितना भी बुलाओ।   

10. 
जिलाके रखो   
मन भर दुलारो   
कभी खोए न रिश्ते   
मर जो गए   
कितने भी जतन   
लौटते नहीं रिश्ते।   

11. 
वाणी का तीर   
मन हुआ छलनी   
घायल हुए रिश्ते   
मन की पीर   
कोई कहे किससे   
दिल गया है छील।   

12. 
दुर्गम रास्ते   
चल सको अगर   
सँभलकर चलो   
रिश्ते सँभालो,   
पाँव छिले, लगा लो   
रिश्तों के मलहम।   

13. 
घायल रिश्ता   
लहूलुहान पड़ा   
ज्यों पर कटा पक्षी,   
छटपटाए   
पर उड़ न पाए   
आजीवन तड़पे।   

14. 
अजब दौर   
बँट गई दीवारें   
ज्यों रिश्ते हों कटारें,   
भेज न पाएँ   
मन की पीर-पाती   
बंद हो गए द्वारे।   

15. 
रिश्ते दरके   
रिस-रिसके बहे   
नस-नस के आँसू,   
मन घायल   
संवेदना है मौन   
समझे भला कौन?   

16. 
बादल रिश्ते   
जमकर बरसे   
प्रेम के फूल खिले,   
मन भँवरा   
प्रेम की फूलवारी   
सुगंध से अघाए।   

17. 
मौसम स्तब्ध   
रिश्ते की मौत हुई   
आसमाँ भी रो पड़ा,   
नज़र लगी   
हँसी भी रूठ गईं   
मातम है पसरा।   

18. 
खिलते रिश्ते   
साथ जो हैं चलते   
खनकती है हँसी   
साथ जो रहें   
कोई कभी न तन्हा   
आए आँधी या तूफाँ।   

19. 
गाछ-से रिश्ते   
कभी तो हरियाए   
कभी तो मुरझाए   
प्रीत-बरखा   
बरसते जो रहे   
गाछ उन्मुक्त जिए।   

20. 
रिश्तों की डोर   
कभी मत तू छोड़   
रख मुट्ठी में जोड़   
हाथ से छूटे   
कटी गुड्डी-से रिश्ते   
साबुत नहीं मिले।   

- जेन्नी शबनम (29. 1. 2021)   
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सोमवार, 8 मार्च 2021

711. अब नहीं हारेगी औरत

अब नहीं हारेगी औरत

******* 

जीवन के हर जंग में हारती है औरत   
ख़ुद से लड़ती-भिड़ती हारती है औरत   
सुख समेटते-समेटते हारती है औरत   
दुःख छुपाते-छुपाते हारती है औरत   
भावनाओं के जाल में उलझी हारती है औरत   
मन पर पैबंद लगाते-लगाते हारती है औरत   
टूटे रिश्तों को जोड़ने में हारती है औरत   
परायों से नहीं अपनों से हारती है औरत   
पति-पत्नी के रिश्तों में हारती है औरत   
पिता-पुत्र के अहं से हारती है औरत   
बेटा-बेटी के द्वन्द्व से हारती है औरत   
बहु-दामाद के छद्म से हारती है औरत   
दुनियादारी के संघर्ष से हारती है औरत   
दुनिया की भीड़ में गुम हारती है औरत   
अपनी चुप्पी से ही सदा हारती है औरत   
तोहमतों के बाज़ार से हारती है औरत   
ख़ुद सपनों को तोड़के हारती है औरत   
ख़ुद को साबुत रखने में हारती है औरत   
जीवन भर हँस-हँसकर हारती है औरत   
जाने क्यों मरकर भी हारती है औरत   
जीवन के हर युद्ध में हारती है औरत।   
अब हर हार को जीत में बदलेगी औरत   
किसी भी युद्ध में अब नहीं हारेगी औरत।  

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2021)
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बुधवार, 27 जनवरी 2021

710. भोर की वेला (भोर पर 7 हाइकु)

भोर की वेला 

*** 

1. 
माँ-सी जगाएँ   
सुनहरी किरणें   
भोर की वेला।   

2. 
पाखी की टोली   
भोरे-भोरे निकली   
कर्म निभाने।   

3. 
किरणें बोलीं-   
जाओ, काम पे जाओ   
पानी व पाखी।   

4. 
सूरज जागा   
आँख मिचमिचाता   
जग भी जागा।   

5. 
नया जीवन,   
प्रभात रोज़ देता   
शुभ संदेश।   

6. 
मन सोचता-   
पंछी-सा उड़ पाता   
छूता अम्बर।   

7. 
रोज रँगता   
प्रकृति चित्रकार   
अद्भुत छटा।   

-जेन्नी शबनम (24.1.2021) 
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बुधवार, 20 जनवरी 2021

709. बात इतनी सी है

बात इतनी सी है 

******* 


चले थे साथ बात इतनी सी है   
जिए पर तन्हा बात इतनी सी है।   

वे मसरूफ़ रहते तो बात न थी   
मग़रूर हुए बात इतनी सी है।   

मुफ़लिसी के दिन थे पर कपट न की   
ग़ैरतमंद हूँ बात इतनी सी है।   

झूठे भ्रम में जीया जीवन मैंने   
कोई न अपना बात इतनी सी है।   

हमदर्द नहीं होता कोई यहाँ   
सब है छलावा बात इतनी सी है।   

ख़ुद से हर ग़म बाँटा ऐ मेरे ख़ुदा   
तुम भी हो ग़ैर बात इतनी सी है।   

सोच समझके अब तुम बोलना ‘शब‘   
जग है पराया बात इतनी सी है।   

- जेन्नी शबनम (20. 1. 2021) 
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सोमवार, 11 जनवरी 2021

708. आकुल (5 माहिया)

आकुल 

******* 

1. 
जीवन जब आकुल है   
राह नहीं दिखती   
मन होता व्याकुल है।   

2. 
हर बाट छलावा है   
चलना ही होगा   
पग-पग पर लावा है।   

3. 
रूठे मेरे सपने   
अब कैसे जीना   
भूले मेरे अपने।   

4. 
जो दूर गए मुझसे   
सुध ना ली मेरी   
क्या पीर कहूँ उनसे।   

5. 
जीवन एक झमेला   
सब कुछ उलझा है   
यह साँसों का खेला।   

- जेन्नी शबनम (10. 1. 2021)
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गुरुवार, 7 जनवरी 2021

707. कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर

कम्फर्ट ज़ोन से बाहर 

*** 

कम्फर्ट ज़ोन से बाहर   
जोखिमों की लम्बी क़तार को   
बच-बचाकर लाँघ जाना   
क्या इतना आसान है   
बिना लहूलुहान पार करना? 
  
हर एक लम्हा संघर्ष है   
क़दम-क़दम पर द्वेष है   
यक़ीन करना बेहद कठिन है   
विश्वास पल-पल दम तोड़ता है   
सरेआम लुट जाते हैं सपने   
ग़ैरों से नहीं, अपनों से मिलते हैं धोखे   
कोई कैसे कम्फर्ट ज़ोन से बाहर आए?
   
कम्फर्ट ज़ोन की सुविधाएँ   
नि:सन्देह कमज़ोर बनाती हैं   
अवरोध पैदा करती हैं   
मन के विस्तार को जकड़ती हैं   
सम्भावनाओं को रोकती हैं। 
  
परन्तु कम्फर्ट ज़ोन से बाहर   
एक विस्तृत संसार है   
जहाँ सम्भावनाओं के ढेरों द्वार हैं   
कल्पनाओं की सीढ़ियाँ हैं   
उत्कर्ष पर पहुँचने के रास्ते हैं। 
  
चुनने की समझदारी विकसित कर   
शह-मात से निडर होकर   
चलनी है हर बाज़ी   
विफलता मिले, तो रुकना नहीं   
ठोकरों से डरना नहीं   
बेख़ौफ़ चलते जाना है। 
   
रास्ता अनजाना है मगर   
संसार को परखना है   
ख़ुद को समझना है   
ताकि रास्ता सुगम बने  
कामनाओं की फुलवारी से   
मनमाफ़िक फूल चुनना है   
जो जीवन को सुगन्धित करे।
   
अब वक़्त आ गया है   
कम्फर्ट ज़ोन से बाहर आकर   
दुनिया को अपनी शर्तों से   
मुट्ठी में समेटकर   
जीवन में ख़ुशबू भरना है   
कम्फर्ट ज़ोन से बाहर आना है। 
  
याद रहे एक कम्फर्ट ज़ोन से  
निकल जाओ जब   
दूसरा कम्फर्ट ज़ोन स्वयं बन जाता है   
पर किसी कम्फर्ट ज़ोन को   
स्थायी मत होने दो। 

-जेन्नी शबनम (7.1.2021)
(पुत्री के 21वें जन्मदिन पर)
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मंगलवार, 5 जनवरी 2021

706. कहानियाँ (5 क्षणिका)

कहानियाँ  

*******

1.
कहानी 
***
कहानी में मैं मुझमें ही कहानी   
कहता कौन सुनता कौन   
पन्नों पर रच दी कहानी   
और मैं बन गई इतिहास।

2.
छोटी कहानी
***
छोटे-छोटे लम्हों में   
यादों की ढेरों कतरन हैं   
सबको इकट्ठाकर   
छोटी-छोटी कहानी रचती हूँ   
अकेलेपन में यादों से कहानियाँ निकल   
मेरे चेहरे पे खिल जाती हैं।   

3. 
मेरी कहानी 
***
मेरे युग के प्रारम्भ से   
मेरे युग के अंत तक की   
कथा लिख दी किसी ने   
किसने, यह नहीं मालूम   
न भाषा मालूम न लिखावट   
पर इतना मालूम है 
कहानी मेरी है।

4.
एक कहानी 
***
रात के धागे में हर रोज़   
यादों के मोती पिरोती हूँ   
हर मोती एक कहानी   
हर कहनी मेरी ज़िन्दगी   
अब सब चाँद के लॉकर में   
रख दिया है संजोकर   
जीवन के अमावस में   
ज़रूरत पड़ेगी।   

5. 
असली कहानी 
***
बचपन की कहानी बड़ी निराली   
दो पंक्तियों में पूरी कहानी   
एक था राजा एक थी रानी   
दोनों मर गए ख़तम कहानी   
तब मालूम कहाँ था   
जीने और मरने के बीच बनती है   
जीवन की असली कहानी।   

- जेन्नी शबनम (5. 1. 2021)
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शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

705. नूतन वर्ष (10 हाइकु)

नूतन वर्ष

***

1. 
दसों दिशाएँ   
करती हैं स्वागत   
नूतन वर्ष।   

2. 
देकर दुःख   
बीता पुराना साल   
बेवफ़ा जैसे।   

3. 
आई द्वार पे   
उम्मीद की किरणें   
नया बरस।   

4. 
विस्मृत करें   
बीते साल की चालें   
मन के छाले।   

5. 
डर से भागा,   
आया जो नव वर्ष   
पुराना वर्ष।   

6. 
बीता बरस   
चला गया निर्मोही   
यादें देकर।   

7. 
याद आएगा   
सुख-दु:ख का साथी   
साल पुराना।   

8. 
वर्ष ज्यों बीता   
वक्त के पिंजड़े से   
फुर्र से उड़ा।   

9.
बड़ा सताया   
किसी को न बिसरा   
गुज़रा साल।   

10. 
आशा का दीप   
लेकर आया साल   
मन सजाओ। 

-जेन्नी शबनम (1.1.2021)
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गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

704. मुट्ठी से फिसल गया

मुट्ठी से फिसल गया 

***

निःसन्देह बीता कल नहीं लौटेगा   
जो बिछड़ गया अब नहीं मिलेगा   
फिर भी रोज़-रोज़ बढ़ती है आस   
शायद मिल जाए वापस   
जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। 
  
ख़ुशियों की ख़्वाहिश ही दुःखों की फ़रमाइश है   
पर मन समझता नहीं, हर पल ख़ुद से उलझता है   
हर रोज़ की यही व्यथा, कौन सुने इतनी कथा?  
 
वक़्त को दोष देकर   
कोई कैसे ख़ुद को निर्दोष कहेगा?   
क्यों दूसरों का लोर-भात एक करेगा?   
बहाने क्यों?   
कह दो, बीता कल शातिर खेल था   
अवांछित सम्बन्धों का मेल था   
जो था सब बेकार था, अविश्वास का भण्डार था   
अच्छा हुआ, बन्द मुट्ठी से फिसल गया। 
  
अमिट दूरियों का अन्तहीन सिलसिला है   
उम्मीदों के सफ़र में आसमान-सा सन्नाटा है   
पर अतीत के अवसाद में कोई कब तक जिए   
कितने-कितने पीर मन में लेकर फिरे   
वक़्त भी वही, उसकी चाल भी वही   
बरज़ोरी से छीननी होगी खुशियाँ। 
  
नहीं करना है अब शोक कि साथ चलते-चलते 
चन्द क़दमों का फ़ासला, मीलों में बढ़ गया   
रिश्ते-नाते, नेह-बन्धन मन की देहरी पर ढह गया   
देखते-देखते सब, बन्द मुट्ठी से फिसल गया।   

-जेन्नी शबनम (31.12.2020)
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रविवार, 20 दिसंबर 2020

703. तकरार

तकरार 

*** 

आत्मा और बदन में तकरार जारी है  
बदन छोड़कर जाने को आत्मा उतावली है   
पर बदन हार नहीं मान रहा   
आत्मा को मुट्ठी से कसकर भींचे हुए है   
थक गया, मगर राह रोके हुए है।
   
मैं मूकदर्शक-सी   
दोनों की हाथापाई देखती रहती हूँ  
कभी-कभी ग़ुस्सा होती हूँ   
तो कभी ख़ामोश रह जाती हूँ  
कभी आत्मा को रोकती हूँ   
तो कभी बदन को टोकती हूँ   
पर मेरा कहा दोनों नहीं सुनते   
और मैं बेबसी से उनको ताकती रह जाती हूँ।
   
कब कौन किससे नाता तोड़ ले   
कब किसी और जहाँ से नाता जोड़ ले   
कौन बेपरवाह हो जाए, कौन लाचार हो जाए   
कौन हार जाए, कौन जीत जाए   
कब सारे ताल्लुक़ात मुझसे छूट जाए   
कब हर बन्धन टूट जाए   
कुछ नहीं पता, अज्ञात से डरती हूँ   
जाने क्या होगा, डर से काँपती हूँ।
   
आत्मा और बदन साथ नहीं   
तो मैं कहाँ?   
तकरार जारी है   
पर मिटने के लिए   
मैं अभी राज़ी नहीं।   

-जेन्नी शबनम (20.12.2020) 
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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

702. गंगा (20 हाइकु)

 गंगा 

***

1. 
चल पड़ी हूँ   
सागर से मिलने   
गंगा के संग।   

2. 
जीवन गंगा   
सागर यों ज्यों क़ज़ा   
अन्तिम सत्य।   

3. 
मुक्ति है देती   
पाप-पुण्य का भाव   
गंगा है न्यारी।   

4. 
सब समाया   
जीवन और मृत्यु   
गंगा की गोद।   

5. 
हम हैं पापी   
गंगा को दुःख देते   
कर दूषित।   

6. 
निश्छल प्यार   
सबका बेड़ा पार   
गंगा है माँ-सी।   

7. 
पावनी गंगा   
कल-कल बहती   
जीवन देती।   

8. 
बसा जीवन   
सदियों का ये नाता   
गंगा के तीरे।   

9. 
गंगा की बाहें   
सबको समेटती   
भलें हों पापी।   

10. 
जीवन बाद   
गंगा में प्रवाहित   
अन्तिम लक्ष्य।   

11. 
गंगा है हारी   
वो जीवनदायिनी   
मानव पापी।   

12. 
गंगा की पीर   
गन्दगी को पी-पीके   
हो गई मैली।   

13. 
क्रूर मानव   
अनदेखा करता   
गंगा का मन।   

14. 
प्रचण्ड गंगा   
बहुत बौखलाई   
बाढ़ है लाई।   

15. 
गंगा से सीखो   
सब सहकरके   
धरना धीर।   

16. 
हमें बुलाती   
कल-कल बहती   
गंगा हमारी।   

17. 
गंगा प्रचण्ड   
रौद्र रूप दिखाती   
जब ग़ुस्साती।   

18. 
गंगा है प्यासी   
उपेक्षित होके भी   
प्यास बुझाती।   

19. 
पावनी गंगा   
जग के पाप धोके   
हुई लाचार।   

20. 
किरणें छूतीं   
पाके सूर्य का प्यार   
गंगा मुस्काती।   

-जेन्नी शबनम (17.12.2020)
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रविवार, 13 दिसंबर 2020

701. पत्थर या पानी

पत्थर या पानी 

***  

मेरे अस्तित्व का प्रश्न है-   
मैं पत्थर बन चुकी या पानी हूँ?   
पत्थरों से घिरी, मैं जीवन भूल चुकी हूँ   
शायद पत्थर बन चुकी हूँ   
फिर हर पीड़ा 
मुझे रुलाती क्यों है?   
हर बार पत्थरों को धकेलकर   
जिधर राह मिले, बह जाती हूँ   
शायद पानी बन चुकी हूँ   
फिर अपनी प्यास से तड़पती क्यों हूँ?   
हर बार, बार-बार   
पत्थर और पानी में बदलती मैं   
नहीं जानती, मैं कौन हूँ।   

-जेन्नी शबनम (12.12.2020)
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बुधवार, 2 दिसंबर 2020

700. स्त्री हूँ (10 क्षणिका)

स्त्री हूँ 

******* 

1.
स्त्री हूँ 
*** 
स्त्री हूँ, वजूद तलाशती   
अपना एक कोना ढूँढती   
अपनों का ताना-बाना जोड़ती   
यायावरता मेरी पहचान बन गई है  
शनै-शनै मैं खो रही हूँ मिट रही हूँ   
पर मिटना नहीं चाहती   
स्त्री हूँ, स्त्री बनकर जीना चाहती हूँ  

2.
अकेली   
*** 
रह जाती हूँ   
बार-बार हर बार   
बस अपने साथ   
मैं, नितांत अकेली   

3. 
भूल जाओ 
*** 
सपने तो बहुत देखे   
पर उसे उगाने के लिए   
न ज़मीन मिली न मैंने माँगी   
सपने तो सपने हैं सच कहाँ होते हैं   
बस देखो और भूल जाओ   

4.
छलाँग 
*** 
आसमान की चाहत में   
एक ऊँची छलाँग लगाई मैंने   
भर गया आसमान मुट्ठी में   
पाँव के नीचे लेकिन ज़मीं ना रही   

5. 
ज़िन्दगी जी ली 
*** 
ज़िंदा रहने के लिए   
सपनों का मर जाना बेहद ख़तरनाक है   
मालूम है फिर भी एक-एककर   
सारे सपनों को मार दिया   
ख़ुद ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारी   
और ज़िन्दगी जी ली मैंने   


6..  
हँस पड़ी वह 
*** 
वह हँसी, वह बोली   
इतना दंभ, इतनी हिमाक़त   
उसे मर्यादित होना चाहिए   
उसे क्षमाशील होना चाहिए   
उसकी जाति का यही धर्म है  
पर अब अधर्मी होना स्वीकार है   
यही एक विकल्प है   
आज फिर हँस पड़ी मैं   


7.
जर्जर 
*** 
आख़िरकार मैं घबराकर   
घुस गई कमरे के भीतर   
तूफ़ान आता, कभी जलजला   
हर बार ढहती रही, बिखरती रही   
पर जब भी खिड़की से बाहर झाँका   
साबुत होने के दम्भ के साथ   
खंडहर नहीं छुपा सकता, काल के चक्र को   
अंततः सबने देखा झरोखे से झाँकती, जवान काया   
जो अब डरावनी और जर्जर है   


8. 
बाँझ 
*** 
मन में अब कुछ नहीं उपजता   
न स्वप्न न कामना   
किसी अपने ने पीछे से वार किया   
हर रोज़ बार-बार हज़ार बार   
कोमल मन खंजर की वार से बंजर हो गया है   
मेरा मन अब बाँझ है   


9.
खुदाई 
*** 
जाने क्यों, ज़माना बार-बार खुदाई करता है   
गहरी खुदाई पर, मन ने हरकत कर ही दी   
दिल पर खुदी दर्द की तहरीर   
ज़माने ने पढ़ ली और अट्टहास किया   
जाने कितनी सदियों से, सब कुछ दबा था   
अँधेरी गुफ़ाओं में, तहख़ाने के भीतर   
अब आँसुओं का सैलाब है   
जो झील बन चुका है   


10.
जबरन 
*** 
अतीत की बेवकूफ़ियाँ   
मन का पछतावापन   
गाहे-बगाहे, चाहे  चाहे   
वक़्त पाते ही बेधड़क घुस आता है   
उन सभासदों की तरह जबरन   
जिनका उस क्षेत्र में प्रवेश-निषेध है   
 हँसने देता है  रोने देता है   
और झिंझोड़कर रख देता है   
पूरा का पूरा वजूद!   

 - जेन्नी शबनम (2. 12. 2020)
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बुधवार, 25 नवंबर 2020

699. दागते सवाल

दागते सवाल 

*** 

यही तो कमाल है   
सात समंदर पार किया, साथ समय को मात दी   
फिर भी कहते हो-   
हम साथ चलते नहीं हैं।   

हर स्वप्न को बड़े जतन से ज़मींदोज़ किया   
टूटने की हद तक ख़ुद को लुटा दिया   
फिर भी कहते हो-   
हम साथ देते नहीं हैं।   

अविश्वास की नदी अविरल बह रही है   
दागते सवाल, मुझे झुलसा रहे हैं   
मेरे अन्तस् का ज्वालामुखी अब धधक रहा है   
फिर भी कहते हो-   
हम जलते क्यों नहीं हैं।   

हाँ! यह सत्य अब मान लिया 
सारे उपक्रम धाराशायी हुए   
धधकते सवालों की चिनगारी 
कलेजे को राख बना चुकी है   
साबुत मन तरह-तरह के सामंजस्य में उलझा   
चिन्दी-चिन्दी बिखर चुका है।   

बड़ी जुगत से चाँदनी वस्त्रों में लपेटकर   
जिस्म के मांस की पोटली बनाई है   
दागते सवालों से झुलसी पोटली 
सफ़र में साथ है   
ज़रा-सा थमो   
जिस्म की यह पोटली 
दिल की तरह खुलकर   
अब बस बिखरने को है।  

-जेन्नी शबनम (25.11.2020) 
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सोमवार, 23 नवंबर 2020

698. भटकना (क्षणिका)

भटकना 

******* 

सारा दिन भटकती हूँ   
हर एक चेहरे में अपनों को तलाशती हूँ   
अंतत: हार जाती हूँ   
दिन थक जाता है रात उदास हो जाती है   
हर दूसरे दिन फिर से वही तलाश, वही थकान   
वही उदासी, वही भटकाव   
अंततः कहीं कोई नहीं मिलता   
समझ में आ गया, कोई दूसरा अपना नहीं होता   
अपना आपको ख़ुद होना होता है   
और यही जीवन है।     

- जेन्नी शबनम (23. 11. 2020)
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मंगलवार, 17 नवंबर 2020

697. वसीयत

वसीयत   

*** 

ज़ीस्त के ज़ख़्मों की कहानी तुम्हें सुनाती हूँ   
मेरी उदासियों की यही है वसीयत   
तुम्हारे सिवा कौन इसको सँभाले   
मेरी यह वसीयत अब तुम्हारे हवाले   
हर लफ़्ज़ जो मैंने कहे, हर्फ़-हर्फ़ याद रखना   
इन लफ़्ज़ों को ज़िन्दा, मेरे बाद रखना   
किसी से कुछ न कभी तुम बताना   
मेरी यह वसीयत, मगर मत भूलाना   
तुम्हारी मोहब्बत ही है मेरी दौलत   
मेरे लफ़्ज़ ज़िन्दा हैं इसकी बदौलत।     

उस दौलत ने दिल को धड़कना सिखाया   
हर साँस पर था जो क़र्ज़ा चुकाया   
मेरे ज़ख़्मों की अब मुझको परवाह नहीं है   
लबों पे मेरे अब कोई आह नहीं है   
अगर्चे अभी भी कोई सुख नहीं है   
ग़म तुमने समझा, तो अब दुःख नहीं है।  

ग़ैरों की भीड़ में मुझको कई अपने मिले थे   
मगर जैसे सारे ही सपने मिले थे   
मुझसे किसी ने कहाँ प्यार किया था   
वार अपनों ने खंजर से सौ बार किया था   
मन ज़ख़्मी हुआ, ताउम्र आँखों से रक्त रिसता रहा   
किसे मैं बताती कि दोष इसमें किसका रहा   
क़िस्मत ने जो दर्द दिया, तोहफ़ा मान सब सहेजा   
मैंने क़दमों को टोका, क़िस्मत को दिया न धोखा   
जीवन में नाकामियों की हज़ारों दास्तान है   
हर पग के साथ बढ़ता छल का अम्बार है   
मेरी हर साँस में मेरी एक हार है।     

जीकर तो किसी के काम न आ सकी   
मेरे जीवन की किसी को कभी भी न दरकार थी   
मेरे शरीर का हर एक अंग मैंने दुनिया को दान किया   
पर कभी यह न सोचा, मैंने कोई अहसान किया   
मैं जब न रहूँ, कइयों के बदन को नया जीवन दिलाना   
बिजली की भट्टी में इसे तुम जलाना   
भट्टी में जब मेरा बदन राख बन जाएगा   
आधे राख को गंगा में वहाँ लेकर जाना 
वहीं पर बहाना   
जहाँ मेरे अपनों का जिस्म राख में था बदला   
आधे को मिट्टी में गाड़कर 
रात की रानी का पौधा लगाना   
मुझे रात में कोई ख़ुशबू बनाना   
जीवन बेनूर था, मरकर बहक लूँ   
वसीयत में यह एक ख़्वाहिश भी रख लूँ   
रात की रानी बन खिलूँगी और रात में बरसूँगी   
न साँस मैं माँगूँगी, न प्यार को तरसूँगी   
भोर में ओस की बूँदों से लिपटी मैं दमकूँगी   
दिन में बुझी भी, तो रात में चमकूँगी।     

क़ज़ा की बाहों में  
जब मेरी सुकून भरी मुस्कुराहट दिखे   
समझना मेरे ज़ीस्त की कुछ हसीन कहानी 
उसने मुझे सुनाई है   
शब के लिए रात की रानी खिलाई है   
जीवन में बस एक प्रेम कमाया, वह भी तुम्हारे सहारे   
इतना करो कि यह प्रेम कभी न हारे   
तुम्हें कसम है, एक वादा तुम करना   
मेरी यह वसीयत तुम ज़रूर पूरी करना   
तुम्हारे सिवा कौन इसको सँभाले   
मेरी यह वसीयत अब तुम्हारे हवाले।    

-जेन्नी शबनम (16.11.2020)
(मेरे बच्चों के लिए) 
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शनिवार, 14 नवंबर 2020

696. प्रकाश-पर्व (दीवाली पर 10 हाइकु)

प्रकाश-पर्व


***


1.

धूम-धड़ाका   

चारों ओर उजाला   

प्रकाश-पर्व।  


2.

फूलों-सी सजी   

जगमग करती   

दीयों की लड़ी।  


3.

जगमगाते   

चाँद-तारे-से दीये   

घोर अमा में।  


4.

झूमती गाती   

घर-घर में सजी   

दीपों की लड़ी।   


5.

झिलमिलाता   

अमावस की रात   

नन्हा दीपक।  


6.

फुलझड़ियाँ   

पटाखे और दीये   

गप्पे मारते।  


7.

दीवाली बोली-   

दूर भाग अँधेरे!   

दीया है जला।  


8.

रोशनी खिली   

अँधेरा हुआ दुःखी   

किधर जाए।  


9.

दीया जो जला   

सरपट दौड़ता   

तिमिर भागा।  


10.

रिश्ते महके   

दीयों संग दमके   

दीवाली आई।  


-जेन्नी शबनम (14.11.2020)

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मंगलवार, 10 नवंबर 2020

695. जिया करो (तुकांत)

जिया करो 

******* 

सपनों के गाँव में, तुम रहा करो   
किस्त-किस्त में न, तुम जिया करो।     

संभावनाओं भरा, ये शहर है   
ज़रा आँखें खुली, तुम रखा करो।  

कब कौन किस वेष में, छल करे   
ज़रा सोच के ही, तुम मिला करो।     

हैं ढेरों झमेले, यहाँ पे पसरे   
ज़रा सँभल के ही, तुम चला करो।     

आजकल हर रिश्ते हैं, टूटे बिखरे   
ज़रा मिलजुल के ही, तुम रहा करो।     

तूफ़ाँ आके, गुज़र न जाए जबतक   
ज़रा झुका के सिर, तुम रहा करो।     

मतलबपरस्ती से, क्यों है घबराना   
ज़रा दुनियादारी, तुम समझा करो।     

गुनहगारों की, जमात है यहाँ   
ज़रा देखकर ही, तुम मिला करो।     

नस-नस में भरा, नफ़रतों का खून   
ज़रा-सा आशिक़ी, तुम किया करो।    

अँधेरों की महफ़िल, सजी है यहाँ   
ज़रा रोशनी बन, तुम बिखरा करो।     

रात की चादर पसरी है, हर तरफ़   
ज़रा दीया बनके, तुम जला करो।     

कौन क्या सोचता है, न सोचो 'शब'   
जीभरकर जीवन अब, तुम जिया करो।    

- जेन्नी शबनम (10. 11. 2020) 
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रविवार, 8 नवंबर 2020

694. हम (11 हाइकु) प्रवासी मन - 119, 120

हम 


******* 

1. 
चाहता मन-   
काश पंख जो होते   
उड़ते हम।    

2. 
जल के स्रोत   
कण-कण से फूटे   
प्यासे हैं हम।    

3. 
पेट मे आग   
पर जलता मन,   
चकित हम।    

4. 
हमसे जन्मी   
मंदिर की प्रतिमा,   
हम ही बुरे।    

5. 
बहता रहा   
आँसुओं का दरिया   
हम ही डूबे।  

6. 
कोई  सगा   
ये कैसी है दुनिया?   
ठगाए हम।     

7. 
हमने ही दी   
सबूत  गवाही,   
इतिहास मैं।  

8.
यायावर थी, 
शब्दों में अब मिली,
पनाह मुझे।      

9. 
मिला है शाप,   
अभिशापित हम   
किया  पाप।    

10. 
अकेले चले   
सूरज-से जलते   
जन्मों से हम।    

11. 
अड़े ही रहे   
आँधियों में अडिग   
हम हैं दूब 

- जेन्नी शबनम (7. 11. 2020)
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मंगलवार, 3 नवंबर 2020

693. कपट

कपट 

***

हाँ कपट ही तो है   
सत्य से भागना, सत्य न कहना, पलायन करना   
पर यह भी सच है, सत्य की राह में   
बखेड़ों के मेले हैं, झमेलों के रेले हैं   
कोई कैसे कहे सारे सत्य, जो दफ़्न हो सीने में   
उम्र की थकान के, मन के अरमान के   
सदियों-सदियों से, युगों-युगों से। 
  
यों तो मिलते हैं कई मुसाफ़िर   
दो पल ठहरकर राज़ पूछते हैं 
दमभर को अपना कहते, फिर चले जाते हैं 
उम्मीद तोड़ जाते हैं, राह पर छोड़ जाते हैं। 
   
काश! कोई तो थम जाता, छोड़कर न जाता   
मन की यायावरी को एक ठौर दे जाता। 
   
ये कपट, ये भटकाव मन को नहीं भाते हैं   
पर इनसे बच भी कहाँ पाते हैं   
यों हँसी में हर राज़ दफ़्न हो जाते हैं   
फिर कहना क्या और पूछना क्या, सब बेमानी है   
ऐसे ही बीत जाता है, सम्पूर्ण जीवन   
किसी की आस में, ठहराव की उम्मीद में। 
   
हम सब इसी राह के मुसाफ़िर, मत पूछो सत्य   
गर कोई जान न सके, बिन कहे पहचान न सके 
यह उसकी कमी है  
सत्य तो प्रगट है, कहा नहीं जाता, समझा जाता है   
फिर भी लोग इसरार करते हैं। 
   
सत्य को शब्द न दें, हँसकर टाल दें, तो कपटी कहते हैं   
ठीक ही कहते हैं वे, हम कपटी हैं, कपटी!   

-जेन्नी शबनम (3.11.2020)
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शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

692. दड़बा

दड़बा 

*** 

ऐ लड़कियों!   
तुम सब जाओ, अपने-अपने दड़बे में   
अपने-अपने परों को सँभालो   
एक दूसरे को अपनी-अपनी चोंच से लहूलुहान करो। 
  
कटना तो तुम सबको है, एक-न-एक दिन   
अपनों द्वारा या ग़ैरों द्वारा   
सीख लो लड़ना 
ख़ुद को बचाना 
दूसरों को मात देना   
तुम सीखो छल-प्रपंच और प्रहार-प्रतिघात   
तुम सीखो द्वंद्ववाद और द्वंद्वयुद्ध। 
  
दड़बे के बाहर की दुनिया 
क़ातिलों से भरी है   
जिनके पास शब्द के भाले हैं 
बोली की कटारें हैं   
जिनके देह और जिह्वा को 
तुम्हारे मांस और लहू की प्यास है   
पलक झपकते ही झपट ली जाओगी   
चीख भी न पाओगी।
   
दड़बे के भीतर, कितना भी लिख लो तुम   
बहादुरी की गाथाएँ, हौसलों की कथाएँ   
पर बाहर की दुनिया, जहाँ पग-पग पर भेड़िए हैं    
जो मानव-रूप धरकर, तुम्हारा इन्तिज़ार कर रहे हैं   
भेड़िए के सामने मेमना नहीं, ख़ुद भेड़िया बनना है   
टक्कर सामने से देना है, बराबरी पर देना है। 
  
ऐ लड़कियो!   
जीवन की रीत, जीवन का संगीत, जीवन का मन्त्र   
सब सीख लो तुम   
न जाने कब किस घड़ी 
समय तुमसे क्या माँगे।   

-जेन्नी शबनम (24.10.2020)
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बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

691. देहाती

देहाती 

*** 

फ़िक्रमन्द हूँ उन सभी के लिए   
जिन्होंने सूरज को हथेली में नहीं थामा   
चाँद के माथे को नहीं चूमा   
वर्षा में भीग-भीगकर न नाचा, न खेला   
माटी को मुट्ठी में भरकर, बदन पर नहीं लपेटा।
   
दुःख होता है उनके लिए   
जिन्हें नहीं पता कि मुँडेर क्या होती है   
मूँज से चटाई कैसे बनती है   
अँगना लीपने के बाद कैसा दिखता है   
ढेंकी और जाँता की आवाज़ कैसी होती है।
   
उन्होंने कभी देखा नहीं, गाय-बैल का रँभाना   
बाछी का पगहा तोड़ माँ के पास भागना   
भोरे-भोरे खेत में रोपनी, खलिहान में धान की ओसौनी   
आँधियों में आम की गाछी में टिकोला बटोरना   
दरी बिछाकर ककहरा पढ़ना, मास्टर साहब से छड़ी खाना। 
  
कितने अनजान हैं वे, कितना कुछ खोया है उन्होंने  
यों वे सभी अति-सुशिक्षित हैं 
चाँद और मंगल की बातें करते हैं   
एक उँगली के स्पर्श से दुनिया का ज्ञान बटोर लेते हैं। 
  
पर हाँ! सच ही कहते हैं वे, हम देहाती हैं    
भात को चावल नहीं कहते, रोटी को चपाती नहीं कहते   
तरकारी को सब्ज़ी नहीं कहते, पावरोटी को ब्रेड नहीं कहते   
हम गाँव-जवार की बात करते हैं 
वे अमेरिका-इंग्लैंड की बात करते हैं। 
  
नहीं! नहीं! कोई बराबरी नहीं, हम देहाती ही भले   
पर उन सबों के लिए निराशा होती है 
जो अपनी माटी को नहीं जानते   
अपनी संस्कृति और समाज को नहीं पहचानते   
तुमने बस पढ़कर सुना है सब   
हमने जीकर जाना है सब। 

-जेन्नी शबनम (20.10.2020)
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रविवार, 18 अक्टूबर 2020

690. चलते ही रहना (चोका - 14)

चलते ही रहना 

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जीवन जैसे   
अनसुलझी हुई   
कोई पहेली   
उलझाती है जैसे   
भूल भूलैया,   
कदम-कदम पे   
पसरे काँटें   
लहूलुहान पाँव   
मन में छाले   
फिर भी है बढ़ना   
चलते जाना,   
जब तक हैं साँसें   
तब तक है   
दुनिया का तमाशा   
खेल दिखाए   
संग-संग खेलना   
सब सहना,   
इससे पार जाना   
संभव नहीं   
सारी कोशिशें व्यर्थ   
कठिन राह   
मन है असमर्थ,   
मगर हार   
कभी मानना नहीं   
थकना नहीं   
कभी रुकना नहीं   
झुकना नहीं   
चलते ही रहना   
न घबराना   
जीवन ऐसे जीना   
जैसे तोहफ़ा   
कुदरत से मिला   
बड़े प्यार से   
बड़ी हिफाज़त से   
सँभाल कर जीना!   

- जेन्नी शबनम (18. 10. 2020)

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गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020

689. इकिगाई

इकिगाई 

*** 

ज़िन्दगी चल रही थी, जिधर राह मिली, मुड़ रही थी   
कहाँ जाना है, क्या पाना है, कुछ भी करके बस जीना है   
न कोई पड़ाव, न कोई मंज़िल 
वक़्त के साथ मैं गुज़र रही थी।  

ज़िन्दगी घिसट रही थी, यों कि मैं धकेल रही थी   
पर जब-जब मन भारी हुआ, जब-जब रास्ता बोझिल लगा   
अन्तर्मन में हूक उठी और पन्नों पर हर्फ़ पिरोती रही   
जो किसी से न कहा, लिखती रही।    

सदियों बाद जाने कैसे उसका एक पन्ना उड़ गया   
जा पहुँचा वहाँ, जहाँ किसी ने उसे पढ़ा   
उसने रोककर मुझे कहा-   
अरे! यही तो तुम्हारी राह थी   
जिस पर तुम छुप-छुपकर रुक रही थी   
इसलिए तुम बढ़ी नहीं   
जहाँ से शुरू की, वहीं पर तुम खड़ी रही   
जाओ! बढ़ जाओ इस राह पर   
पन्नों को बिखरा दो क़ायनात में   
कोई झिझक न रखो अपनी बात में।     

मैं हतप्रभ! अब तक क्यों न सोचा   
मेरे लिए यही तो एक रास्ता था   
जिस पर चलकर सुकून मिलना था   
जीवन को संतुष्टि और सार्थकता का बोध होना था   
पर अब समझ गई हूँ   
पन्नो पर रची तहरीर, मेरा इकिगाई है।  

[इकिगाई- जापानी अवधारणा: मक़सद/जीवन-उद्देश्य) 

-जेन्नी शबनम (15.10.2020)
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शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

688. साथी (चार लाइन की भावाभिव्यक्तियाँ) (12 क्षणिका)

साथी 

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1. 
साथी 
***
मेरे साथी! तुम तब थे कहाँ   
ज़ख़्मों से जब हम थे घायल हुए   
इक तीर था निशाने पे लगा   
तन-मन मेरा जब ज़ख़्मी हुआ।  

2.
एहसान 
***
उम्र भर चले जलती धूप में   
पाँव के छाले अब क़दम है रोके   
कभी जो छाँव कोई, दमभर मिली   
तुम कहते कि एहसान तेरा हुआ।       

3. 
तू कहाँ था 
***
ख़्वाहिशों की लम्बी क़तारें थीं   
फफोले-से सपने फूटते रहे   
जब दर्द पर मेरे हँसती थी दुनिया   
तू कहाँ था, मेरे साथी बता।     

4. 
पराया 
***
जब भटकते रहे थे हम दरबदर   
मंदिर-मस्जिद सब हमसे बेख़बर   
घाव पर नमक छिड़कती थी दुनिया   
मेरा दर्द भला क्यों पराया हुआ।     

5.
मेरे हिस्से 
*** 
फूल और खार दोनों बिछे थे   
सारे खार क्यों मेरे हिस्से   
दुखती रगों को छेड़कर तुमने   
हँसके थे सुनाए मेरे क़िस्से।     

6. 
कुछ न जीता 
***
लो अब ये कहानी ख़त्म हो गई   
ज़िन्दगी अब नाफ़रमानी हो गई   
गर वापस तुम आओ तो देखना   
हम तो हारे, तुमने भी कुछ न जीता।   

7.
सौदा 
*** 
सीले-सीले से जीवन में नहीं रौशनी   
चाँद और सूरज भी तो तेरा ही था   
शब के रातों की नमी मेरी तक़दीर   
उजालों का सौदा तुमने ही किया।     

8. 
लाज 
***
नफ़रतों की दीवार गहरी हुई   
ढह न सकी, उम्र भले ठिठकी रही   
हो सके तो एक सुराख़ करना   
ज़माने की ख़ातिर लाज रखना।     

9. 
हम थे कहाँ 
***
जब-जब जीवन से हारती रही   
आँखें तुमको ही ढूँढती रही   
अपनी दुनिया में उलझे रहे तुम   
बता तेरी दुनिया में हम थे कहाँ।     

10.
आँसू 
*** 
शब के आँसू आसमाँ के आँसू   
दिन के आँसू ये किसने भरे   
धुँधली नज़रें किसकी मेहरबानी   
कभी तो पूछते तुम अपनी ज़बानी।     

11. 
उदासी
***
दरम्याने-ज़िन्दगी ये कैसा वक़्त आया है   
ज़िन्दगी की तड़प भी और मौत की चाहत है   
लफ्ज़-लफ्ज़ बिखरे हुए, अधरों पर ख़ामोशी है   
ज्यों छिन रही हो ज़िन्दगी, मन में यूँ उदासी है।     

12.
अलविदा 
*** 
अब जो लौटो तुम तो हम क्या करें   
ज़ख़्म सारे रिस-रिस के अब नासूर बने   
तेरे क़र्ज़ के तले है जीवन बीता   
ऐ साथी मिलेंगे कभी अलविदा-अलविदा।  

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2020) 
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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

687. बापू हमारे (बापू पर 10 हाइकु)

बापू हमारे 


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1.

एक सिपाही   

अंग्रेज़ो पर भारी,   

मिला स्वराज।


2.

देश की शान   

जन-जन के प्यारे   

बापू हमारे।


3.

क़त्ल हो गया   

अहिंसा का पुजारी,   

अभागे हम।


4.

बापू का मान   

हमारा अभिमान,   

अब तो मानो।


5.

अस्सी थी उम्र,   

अंग्रेज़ो को भगाया   

निडर काया।


6.

मिली आज़ादी   

साथ मिला संताप   

शोक में बापू।


7.

माटी का पूत   

माटी में मिल गया   

दिला के जीत। (बापू)


8.

निहत्था लड़ा   

अस्सी साल का बूढ़ा,   

कभी  हारा। (बापू)


9.

अकेला बढ़ा   

कारवाँ साथ चला   

आख़िर जीता। (बापू)


10.

सादा जीवन   

कड़ा अनुशासन   

बापू की सीख।


- जेन्नी शबनम (2. 10. 2020)

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