बुधवार, 20 नवंबर 2024

782. ज़िन्दगी

ज़िन्दगी


1. 
ज़िन्दगी चली
बिना सोचे-समझे
किधर मुड़े?
कौन बताए दिशा
मंज़िल मिले जहाँ। 

2. 
मालूम नहीं 
मिलती क्यों ज़िन्दगी
बेइख़्तियार,
डोर जिसने थामे
उड़ने से वो रोके। 

3. 
अब तो चल 
ऐ ठहरी ज़िन्दगी!
किसका रस्ता
तू देखे है निगोड़ी
तू है तन्हा अकेली। 

4. 
चहकती है  
खिली महकती है
ज़िन्दगी प्यारी
जीना तो है जीभर
यह सारी उमर। 

5. 
बनी जो कड़ी
ज़िन्दगी की ये लड़ी
ख़ुशबू फैली,
मन होता बावरा
ख़ुशी जब मिलती। 

6. 
फिर है खिली
ज़िन्दगी की सुबह
शाम सुहानी,
मन नाचे बारहा
सौग़ात जब मिली। 

7. 
नहीं है जानी  
नहीं है पहचानी
राह जो चली,
ज़िन्दगी अनजानी
पर नहीं कहानी।

-जेन्नी शबनम (19.10.24)
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शनिवार, 16 नवंबर 2024

781. आग मुझे खल रही है

आग मुझे खल रही है 

***

एक आग में तमाम उम्र 
जलती, तपती, झुलसती रही
आह निकले, पर सब्र किया
ज़ख़्म दुःखे, पर हँस दिया
आसमाँ से वर्षा की गुहार लगाई
उसने आग बरसाई 
हवा से नमी उधार माँगी
उसने लावा की तपिश भेजी
धूप से छाँव की गुज़ारिश की
उसने आग धरती पर उतारी
उम्र से कुछ सुखद पलों की याचना की 
उसने तमाम पलों को चिन्दी-चिन्दी कर बिखेर दिया।
  
न जाने क्यों अब ये सब चुप हैं
मेरी चाहतें तंग हैं या
मेरी तक़दीर की मुझसे जंग है
सुकून के एक पल भी मिलने नहीं आते हैं  
संवेदना से भरे हाथ मुझ तक नहीं पहुँचते हैं। 
 
अपनी मुट्ठियों में ख़ुद को समेटे 
सुलग रही हूँ, दहक रही हूँ
अग्नि धीरे-धीरे बुझ रही हूँ 
चिनगारी अब भी सुलग रही है
मेरी ज़िन्दगी अब भी जल रही है
और ये आग मुझे खल रही है।

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2024)
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शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

780. कुछ ताँका (28 ताँका)

 बच्चे


1. बच्चों के बिना 
फीका है पकवान
सूना घर-संसार,
लौटते ही बच्चों के 
होता पर्व-त्योहार। 

2. तोतली बोली
माँ-बाबा को पुकारे
वो नौनिहाल,
बोली सुन-सुनके 
माँ-बाबा हैं निहाल।   

3. नींद से जाग 
मचाते हर भोर
बहुत शोर,
तूफ़ान साथ जाए
जाते जब वे स्कूल!

4. गुंजित घर  
बच्चे की किलकारी
माँ जाती वारी
नित सुबह-शाम
बिना लिए विराम। 

5. सुबह-शाम
होता बड़ा उधम,
ढेरों हैं बच्चे
संयुक्त परिवार
रौशन घर-बार। 

6. बच्चों की अम्मा
व्यस्त रहती सदा
काम का टीला 
धीरे-धीरे ढाहती 
ज़रा भी न थकती।  

7. जीव या जन्तु 
सबकी माँ करती 
बच्चों की चिन्ता,  
प्रकृति की रचना  
स्त्री अद्भुत स्वरूपा।  
-0-

बेटियाँ

1. नन्ही-सी परी
खेले आँख-मिचौली,
माँ-बाबा हँसे
देखे थे जो सपने
हुए वे सब पूरे। 

2. छोटी-सी कली
अम्मा छोड़ जो चली
हो गई बड़ी,
अब बिटिया नन्हीं
सबकी अम्मा बनी। 

3. नाज़ुक प्यारी
माँ-बाबा की दुलारी
होती है बेटी,
जाए पिया के घर
कर सूना आँगन। 

4. आँखों का तारा
होती सब बिटिया,
माँ-बाबा रोए 
विदा हुई बिटिया  
जाए पी के अँगना। 

5. घर का दर्जा 
देती सब बेटियाँ
दरो-दीवार,
जाएँ कहीं, सृजन 
करती हैं बेटियाँ। 

6. बेटी की अम्मा
रहती घबराई
बेटी जो जन्मी,
किस घर वो जाए
हर सुख वो पाए। 

7. रौशन घर
करती हैं बेटियाँ
जहाँ भी जाए,
मायका होता सूना
चहके वर-अँगना। 
-0-

ईश्वर

1. हूँ पुजारिन
नाथ सिर्फ़ तुम्हारी
तू बिसराया
सुध न ली हमारी
क्यों समझा पराया?

2. ओ रे विधाता!
तू क्यों न समझता
जग की पीर,
आस जब से टूटा
सब हुए अधीर। 

3. गर तू थामे
जो मेरी पतवार
देखे संसार,
भव सागर पार
पहुँचूँ तेरे पास। 

4. हे मेरे नाथ!
कुछ करो निदान
हो जाऊँ पार
जीवन है सागर
कोई न खेवनहार।  

5. तू साथ नहीं
डगर अँधियारा
अब मैं हारी,
तू है पालनहारा
फैला दे उजियारा। 

6. मैं हूँ अकेली
साथ देना ईश्वर
दुर्गम पथ
चल-चलके हारी
अन्तहीन सफ़र। 

7. भाग्य-विधाता
तू जग का निर्माता 
पालनहारा,
सुन ले, हे ईश्वर!
तेरे भक्तों की व्यथा। 
-0-

कृष्ण

1. रोई है आत्मा
तू ही है परमात्मा
कर विचार,
तेरी जोगन हारी
मेरे कृष्ण मुरारी। 

2. चीर-हरण
हर स्त्री की कहानी
बनी द्रौपदी,
कृष्ण! लो अवतार
करो स्त्री का उद्धार। 

3. माखन चोरी
करते सीनाजोरी
कृष्ण कन्हाई,
डाँटे यशोदा मैया
फिर करे बड़ाई। 

4. कर्म-ही-कर्म
बस यही है धर्म
तेरा सन्देश,
फ़ैल रहा अधर्म
आके दो उपदेश। 

5. तू हरजाई
की मुझसे ढिठाई,
ओ मोरे कान्हा!
गोपियों संग रास
मुझे माना पराई। 

6. रास रचाया
सबको भरमाया
नन्हा मोहन,
देके गीता का ज्ञान
किया जग-कल्याण। 

7. तेरी जोगन
तुझमें ही समाई,
बड़ी बावरी
सहके सब पीर
बनी मीरा दीवानी।

- जेन्नी शबनम (27.9.2024)
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रविवार, 25 अगस्त 2024

779. तुम (10 क्षणिका)

तुम (10 क्षणिका)

***

1. तुम 

मन में उमंग हो
साथ अगर तुम हो
खिल जाती है मुसकान
नाचता-गाता है आसमान
और कैमरे में उतरता है 
हमारा बचपन।


2. यारी

आप कहें, कभी तुम कहें 
कभी जी, कभी जी हुज़ूर 
ऐसी ग़ज़ब की यारी अपनी 
राधा-कृष्ण-सी है मशहूर।


3. हथेली

रात से छिटककर
मंद-मंद मुसकाती भोर  
उतरकर मेरी हथेली पर आ बैठी
यूँ मानो, हो तुम्हारी हथेली।


4. शाम

तुम थे हम थे 
और मज़ेदार शाम थी
चाय की दो प्याली 
और ठिठुरती शाम थी
बातें अपनी, कुछ ज़माने की
और खिलखिलाती शाम थी
फिर मिलेंगे कहकर चल दी
वह गुज़रती शाम थी।


5. आ जाओ 

उफ! ये घने अँधेरे
डराते हैं बनकर लुटेरे
सूरज बनकर न सही 
एक जुगनू-से सही 
तुम आ जाओ 
बस आ जाओ। 


6. तुम से आप होना    

तुम से आप होना   
जैसे बद से बदतर होना   
सम्बन्ध मन से न हो   
तो यही होगा न!

7.
6. 
तुम से आप होना    

तुम से आप होना   
जैसे बद से बदतर होना   
सम्बन्ध मन से न हो   
तो यही होता है। 
   

7. अपनाया   

अंतर्कलह से जन्मी कविताएँ   
बौखलाई हैं पलायन को   
जाने कहाँ जाकर मिले पनाह   
कौन समझे उसकी पीड़ा को?   
पर अब ख़ुश हूँ उसके लिए   
तुमने समझकर अपनाया उसे। 


8. बदलाव   

मौसम का बदलना   
नियत समय पर होता है   
पर मन का मौसम   
क्षणभर में बदलता है   
यह बदलाव   
तुम क्यों नहीं समझते?


9. महोगनी का पेड़   

महोगनी का पेड़ हूँ   
टिकाऊ और सदाबहार   
पर मन तो स्त्री का ही है   
जिसे अपनी क़ीमत नहीं मालूम   
सज गई हूँ आलीशान महल में 
जाने किस-किस रूप में   
अब जान गई हूँ अपनी क़ीमत    
पर तुम अब भी नहीं जानते। 


10. फ़ासला 

उम्र का फ़ासला मैंने न बनाया
मन का फ़ासला तुमने न मिटाया
आओ एक कोशिश करते हैं
एक उम्र हम चलते हैं
एक क़दम तुम चलो
शायद कभी कहीं 
किसी छोर पर
फ़ासला मिट जाए। 

- जेन्नी शबनम (11. 9. 2021)
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रविवार, 30 जून 2024

778. ज़िन्दगी बौनी (10 ताँका)

ज़िन्दगी बौनी (10 ताँका)

*** 


1.
दहलीज़ पे
बैठा राह रोकके 
औघड़ चाँद 
न आ सका वापस 
मेरा दर्द या प्रेम।

2.
ज़िन्दगी बौनी
आकाश पे मंज़िल
पहुँचे कैसे?
चारों खाने चित है
मन मेरा मृत है।

3.
गहन रात्रि
सुनसान डगर
किधर चला?
मेरा मन ठहर
थम जा तू इधर।

4.
तुम्हारा स्पर्श
मानो जादू की छड़ी
छूकर आई
बादलों को प्यार से 
ऐसी ठण्डक पाई।

5.
ग़ायब हुए
सिरहाने से ख़्वाब
छुपाया तो था
काल की नज़रों से,
चोरी हो गए ख़्वाब 

6.
कोई न सगा 
सब देते हैं दग़ा
नहीं भरोसा,
अपना या पराया
दिल मत लगाना। 

7.
मैंने कुतरे
अपने बुने ख़्वाब
होके लाचार,   
पल-पल मरके
मैंने रचे थे ख़्वाब।  
   
8.
मैं गुम हुई
मन की कंदराएँ
बेवफ़ा हुईं,
कोई तो होगी युक्ति   
जो मुझे मिले मुक्ति।  

9. 
मेरे सपने 
आसमाँ में जा छुपे 
मैं कैसे ढूँढूँ? 
पाखी से पंख लिए  
सूर्य ने है जलाए।  

10. 
मेरी तिजोरी
जिसे छुपाया वर्षों
हो गई चोरी
जहाँ ख़ुशियाँ मेरी
छुपी रही बरसों।

-जेन्नी शबनम (20.6.24)
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शुक्रवार, 21 जून 2024

777. खण्डहर (10 क्षणिका)

खण्डहर 

***

1.
खण्डहर होना 
*** 
न समय के, न समाज के ध्यान में होता है
मन का खण्डहर होना
सिर्फ़ मन के संज्ञान में होता है।

2.
खण्डहर में तब्दीली
*** 
खण्डहर में तब्दीली का उम्र से नाता नहीं
सिर्फ़ समय का नाता है
कभी एक पल लगता है, तो कभी कई जन्म।

3.
खण्डहर की पीड़ा  
***
खण्डहर की पीड़ा खण्डहर जाने
नए महलों को मालूम नहीं होता 
सबका भविष्य एक ही जैसा है 
समय कभी किसी को नहीं बख़्शता है।

4.
खण्डहर बनना 
*** 
शरीर का खण्डहर बनना ज़माना देखता है
पर मन पुख़्ता है, कोई नहीं देखता
शरीर के साथ मन भी तिरस्कृत होता है
साबुत मन उम्र भर, टूटे जिस्म को ढोता है। 

5.
खण्डहर की आस 
***
समय के साथ सब छिन्न-भिन्न हो जाता है 
खण्डहर आस लगाए है
कि उसके गौरवशाली इतिहास का कोई साक्षी
उसके ख़ुशहाल अतीत की गवाही दे
और अदालत का फ़ैसला उसको सुनाई दे। 

6.
खण्डहर का ख़ास पल  
***
कई बार मन ख़ास पल में साँस लेता है
उसके खण्डहर तन में वह ख़ास पल
मृत्योपरान्त भी जीता है
ऐसा लगता है मानो शरीर बीता है 
मगर वह पल नहीं बीता है। 

7.
खण्डहर की चाह 
***
मन ध्वस्त हो जाता है
तन खण्डहर हो जाता है
परवाह नहीं कि जीवन कितना, मृत्यु कब
पर एक चाह है, जो जाती नहीं
कोई आए, हाल पूछे, ज़रा बैठे
साथ न दे, साथ का भरोसा ही दे।

8.
खण्डहर के मालिक
*** 
महल की ख़ूबसूरती उसका दोष है
उसके हज़ारों टुकड़े किए मिटाने के लिए
खण्डहर में तब्दील होने के गवाहों ने
तमाशा देखा, सुकून पाया
खण्डहर के ख़ज़ानों की बोली लगी है 
अब सारे तमाशबीन खण्डहर के मालिक हैं।

9.
खण्डहर बना देता है 
***
समय के चक्र से 
उम्र के उतार पर खण्डहर बनना जायज़ है   
पर उम्र की भरी दुपहरी में 
साबुत बदन को नोच-नोचकर 
नरभक्षी बना काल 
मन को एक झटके में खण्डहर बना देता है  
नियति स्तब्ध है, विक्षुब्ध है। 

10.
खण्डहर भी प्यार है
*** 
किसी भी खण्डहर में एक-न-एक फूल खिल जाता है
मौसम ज़िन्दगी पैदा करता है, पत्थर में साँसे भरता है
इन्सान भूल जाता है, जब खण्डहर जीवित था
उसका प्यार, दुलार, अधिकार था
उसके रिश्तों का आधार था
अगर कभी याद आए तो खण्डहर के अतीत में
अपने दम्भ को याद करने जाता है
इसे मैंने मारा है सोचकर मुस्कुराता है
पर मौसम के लिए खण्डहर भी प्यार है
उसके लिए अब भी एक नक्शा है, एक आकार है।

-जेन्नी शबनम (21.6.24)
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बुधवार, 12 जून 2024

776. कशमकश

कशमकश

*** 

रिश्तों की कशमकश में ज़ेहन उलझा है
उम्र और रिश्तों के इतने बरस बीते 
मगर आधा भी नहीं समझा है
फ़क़त एक नाते के वास्ते
कितने-कितने फ़रेब सहे
बिना शिकायत बिना कुछ कहे
घुट-घुटकर जीने से बेहतर है 
तोड़ दें नाम के वे सभी नाते
जो मुझे बिल्कुल समझ नहीं आते।

- जेन्नी शबनम (12.6.2021)
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बुधवार, 1 मई 2024

775. वक़्त आ गया है

वक़्त आ गया है 


***


अक्सर सोचती हूँ 

हर बारबार-बार

मैं चुप क्यों हो जाती हूँ?

जानती हूँमेरी चुप्पी हर किसी को भा रही है

पर मुझे भीतर से खोखला कर रही है

अन्दर-ही-अन्दर खा रही है 

मैं अनभिज्ञ नहीं किसी भी सरोका से

स्वयं का हो या संसार का

पर मेरी चुप्पी मुझे धकेल देती है गुमनाम दुनिया में

जहाँ मेरे अस्तित्व का सवाल पैदा हो जाता है

मैं हर बार अपनी खाल में चुपचाप समा जाती हूँ 

अपनी चुप्पी से अपनी ही आहुति देती जाती हूँ 

कोई मुझे इससे बाहर नहीं निकालता है

सब छोड़ देते हैं मुझे मेरी क़िस्मत कहकर

पर मैं क्यों ऐसी हूँ?

मन-मस्तिष्क का लावा मुझे जलाता है 

पर यह आग दिखती क्यों नहीं?

क्यों मैं जलती रहती हूँ?

अंगारों पर चलती रहती हूँ 

ख़ुद को आग में जलाती रहती हूँ 

सभी के सामने मुस्कुराती रहती हूँ 

मेरे जलने-रोने से संसार प्रभावित नहीं होता

मैं ही धीरे-धीरे मिटती जाती हूँ

अपने सवाल का जवाब ख़ुद को कहती जाती हूँ 

जो निरर्थक भी है और व्यर्थ भी। 

मुझे अब अपना जवाब सभी को बताना होगा

अपनी चुप्पी को तोड़ना होगा

हर उस सवाल पर लावा उगलना होगा

जो मुझे मिटाता हैजलाता है

अपनी चुप्पी का एहसास मुझे नहीं चाहिए 

मेरी चुप्पी का अर्थ मुझे जतलाना होगा

मुझे क्या-क्या कहना है, समझाना होगा 

मेरी चुप्पी को ज्वालामुखी में बदलना होगा 

अन्यथा मैं जलती रहूँगी, लोग जलाते रहेंगे

मैं मिटती रहूँगी, लोग मिटाते हेंगे

अब बस!

चुप्पी को तोड़ने का वक़्त  गया है

अपने मनमाफ़िक जीने का वक़्त  या है

संसार से क़दम-ताल मिलाने का वक़्त  गया है।


-जेन्नी शबनम (1.5.24)

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मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

774. नैनों से नीर बहा (19 माहिया)

नैनों से नीर बहा (19 माहिया)

*** 

1.
नैनों से नीर बहा
किसने कब जाना
कितना है दर्द सहा।

2.
मन है रूखा-रूखा
यों लगता मानो
सागर हो ज्यों सूखा।

3.
दुनिया खेल दिखाती
माया रचकरके
सुख-दुख से बहलाती।

4.
चल-चल के घबराए
धार समय की ये 
किधर बहा ले जाए।

5.
मैं दुख की हूँ बदली
बूँद बनी बरसी 
सुख पाने को मचली। 

6.
जीवन समझाता है
सुख-दुख है खेला
पर मन घबराता है।

7.
कोई अपना होता
हर लेता पीड़ा
पूरा सपना होता।

8.
फूलों का वर माँगा
माला बन जाऊँ
बस इतना भर माँगा।

9.
तुम कुछ ना मान सके
मैं कितनी बिखरी
तुम कुछ ना जान सके।

10.
कब-कब कितना खोई
क्या करना कहके
कब-कब कितना रोई।

11.
जीवन में उलझन है
साँसें थम जाएँ
केवल इतना मन है।

12.
जब वो पल आएगा 
पूरे हों सपने
जीवन ढल जाएगा।

13.
चन्दा उतरा अँगना
मानो तुम आए
बाजे मोरा कँगना।

14.
चाँद उतर आया है
मन यूँ मचल रहा
ज्यों पी घर आया है।

15.
चमक रहा है दिनकर
'दमको मुझ-सा तुम'
मुस्काता है कहकर।

16.
हरदम हँसते रहना
क्या पाया-खोया
जीवन जीकर कहना।

17.
बदली जब-जब बरसे
आँखों का पानी
पी पाने को तरसे।

18.
अपने छल करते हैं
शिकवा क्या करना 
हम हर पल मरते हैं।

19.
करते वे मनमानी
कितना सहते हम
ओढ़ी है बदनामी।

-जेन्नी शबनम (8.4.24)
________________

सोमवार, 25 मार्च 2024

773. रंगों की झोली (20 हाइकु)

रंगों की झोली 

***

1.
विजयी भव
होली का आशीर्वाद
हर माँ देती।

2.
माँ-बाबा पास
रॉकेट से भेजती
रंगों की झोली!

3.
जम के खेलो
प्राकृतिक गुलाल
न हो बीमार।

4.
गेंदा-पलाश
बनके होली रंग
रहे हुलस।

5.
फगुआ गीत
मौसम में गूँजता
मन झूमता।

6.
होली का रंग
मन पे चढ़ा गाढ़ा
अपनों संग।

7.
होली त्योहार
परिवार जो साथ
फैला उल्लास।

8.
अम्मा ग़रीब
पिचकारी है रूठी
बच्चे उदास।

9.
रंग-गुलाल
नैहर न पीहर
किसको भेजूँ!

10.
फगुआ रंग
जाने मन की पीर
न हो अधीर।

11.
होली है आई
न रंग, न मिठाई
नहीं कमाई।

12.
फगुआ गाती
हवा हुई रंगीन
रंग उड़ाती।

13.
होली रंगीन
सबको रंगकर
ठट्ठा करती।

14.
होली के यार
रंग व पकवान
मिलके बाँटो।

15.
होली की मस्ती
भूलो अपनी हस्ती
रँग दो बस्ती।

16.
बसन्ती हवा
झूमती मतवाली
रंग लगाती।

17.
पलाश रंग
गहरा निखरता
प्यार का रंग।

18.
मन से खेली
फगुआ वाली होली
पिया की हो ली।

19.
रंग बरसे
मनवा है तरसे
पी परदेस।

20.
पराया घर
रंगीन हुआ तन
भीगा है मन।

-जेन्नी शबनम (25.3.24)
__________________ 

शुक्रवार, 8 मार्च 2024

772. स्त्री जानती है

स्त्री जानती है 

***

उलझनें मिलती हैं, पर कम उलझती है 
स्त्री ये जानती है, स्त्री सब समझती है 
कब कहाँ कितना बोलना है
कब कहाँ कितना छुपाना है
क्या दिल में दफ़्न करना है 
क्या दुनिया को कहना है 
बेबाक़ बातें स्त्री नहीं कर सकती
मन की हर बात नहीं कह सकती
लग जाएँगे बेहयाई के इल्ज़ाम 
हो जाएगी अपने ही घर में बदनाम
जान चली जाए पर मन खोल सकती नहीं  
झूठ कहती नहीं, सच अक्सर बोल सकती नहीं  
उम्र बीत जाए पर मनचाहा नहीं कर सकती
फूल उगा सकती है, पर तितलियाँ नहीं पकड़ सकती 
अपने मन की बातें अपने मन तक
अपने दुख अपने एहसास अपने तक
रिश्ते समेटते-समेटते ख़ुद बिखरती है
कोई नहीं समझता स्त्री कितना टूटती है, मरती है 
हज़ारों शोक, मगर स्त्री के आँसू नापसन्द हैं
हँसती-खिलखिलाती स्त्री सबकी पसन्द है
जन्म से मिली इस विरासत को ढोना है
स्त्री को इन्सान नहीं केवल स्त्री होना है 
और स्त्री की स्त्री होने की यह अकथ्य पीड़ा है।

-जेन्नी शबनम (8.3.2024)
(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस)
____________________

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

771. अन्तिम लक्ष्य

अन्तिम लक्ष्य 

***

यूँ लगता है
मैं बाढ़ में ज़मीन से उखड़ा हुआ कोई दरख़्त हूँ
नदी के पानी पर चल रही हूँ
चल नहीं रही, फिसल रही हूँ
जाने कहाँ टकराऊँ, कहाँ पार लगूँ
या किसी भँवर में फँसकर डूब जाऊँ। 

क्या मेरे अस्तित्व का कोई निशान होगा?
किसी को परवाह होगी?
कहाँ दफ़्न होना है, कहाँ क़ब्रगाह होगी
मुमकिन है मेरे मिटने के बाद नयी कहानी हो
यही अच्छा है मगर
न कोई निशानी हो, न कोई कहानी हो।

और भी लोग जीवन भर पानी में रह रहे हैं
जानती हूँ, मेरी तरह हज़ारों पेड़ बह रहे हैं
कोई-कोई पेड़ कहीं किसी साहिल से टकराकर
एक नई ज़मीन को पकड़कर ख़ुद को बचा लेगा
ख़ुद को लहरों की प्रलय से दूर हटा लेगा
जाने वह दरख़्त ख़ुशनसीब होगा या बदनसीब होगा
या मेरी ही तरह अनकही कहानियों के साथ
जीने को विवश होगा। 

उफ! ये पानी क्यों नहीं समझता अपनी ताक़त
जबरन बहाए लिए जाता है
मुझे शक्तिहीनता का बोध कराता है
जानती हूँ मेरी ज़ात शक्तिहीन हो जाती है
अक्सर लाचार हो जाती है
कभी तन से कभी मन से
कभी दायित्व से कभी ममत्व से।

पानी पर फिसलते-फिसलते
मैं अब थक गई हूँ
मेरे रास्ते में न साहिल है न भँवर
न ज़मीं है न सहर
न आसमाँ न रात का क़मर
एक बाँध है जिसने रास्ता रोक रखा है
कहीं मिल न जाए समुन्दर।

अँधेरे के सफ़र पर पानी में बहती-उपटती हूँ
कई बार ख़ुद को ही दबोच लेने का मन होता है
किसी तरह बाँध की झिर्रियों से बहकर
दूर निकल जाने का मन करता है
समुन्दर अन्तिम लक्ष्य
समुन्दर अन्तिम सत्य है
समुन्दर में समा जाने का मन करता है।

राह में जो बाँध हाथ बाँधे खड़ा है
काश! वह मेरी राह न रोके
या फिर मुझे ऊपर खींच ले
और किसी बगान के कोने में
ज़रा-सी ज़मीन में मुझे रोप दे।

तन-मन मृत हो रहा है
आस लेकिन जीवित है।

-जेन्नी शबनम (30.1.24)
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गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

770. हँसती हुई नारी (चोका)

हँसती हुई नारी (चोका)

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लगती प्यारी
हँसती हुई नारी
घर-संसार
समृद्धि भरमार
रिश्तों की गूँज
पसरी अनुगूँज
चहके घर
सुवासित आँगन
बच्चों का प्यार
पुरुष से सम्मान
पाकर के स्त्री
चहकती रहती,
खिलखिलाती
सम्बन्धों की फ़सल
लहलहाती
नाचती हैं ख़ुशियाँ
प्रेम-बग़िया
फूलती व फलती,
पाकर प्रेम
पाके अपनापन
भर उमंग
करती निछावर
तन व मन
सूरज-सा करती
निश्छल कर्म
स्त्री सदैव बनती
मददगार
अपने या पराए
चाँद-सी बन
ठण्डक बरसाती
नहीं सोचती
सिर्फ़ अपने लिए
करती पूर्ण
वह हर कर्तव्य
ममत्व-भरा
नारी है अन्नपूर्णा
बड़ी संयमी
मान-प्यार-दुलार
नारी-मन का सार।

- जेन्नी शबनम (7. 12. 2023)
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बुधवार, 20 दिसंबर 2023

769. मन गुल्लक (5 हाइकु)

मन गुल्लक (5 हाइकु)

1.
मन गुल्लक
ख़ुशियों का ख़ज़ाना
ख़त्म न होता।

2.
मन है बना
ख़ुशियों का गुल्लक
कोई न लूटे।

3.
भर के रखो
ख़ुशियों का गुल्लक
भले ही टूटे।

4.
भरा गुल्लक
ख़ुशियों का रुपया
मेरा ख़ज़ाना।

5.
मेरा गुल्लक
ख़ुशियों से है भरा
कभी न टूटा।

- जेन्नी शबनम (19.12.2023)
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गुरुवार, 16 नवंबर 2023

768. जीकर देखना है

जीकर देखना है   

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जीवन तो जी लिया 

कभी अपने लिए जीकर देखा क्या? 

सच ही है 

जीते-जीते जीना कब कोई भूल जाता है

कुछ पता नहीं चलता

तभी तो कोई पूछता है- 

कभी अपने लिए जीकर देखा है?

यह तो यूँ है जैसे कोई नदी से पूछे- तुमने बहकर देखा है 

बादलों से पूछे- तुमने बारिश में नहाकर देखा है 

आग से पूछे- तुमने जलकर देखा है 

सूरज से पूछे- तुमने उगकर-डूबकर देखा है 

सबकी फ़ितरत एक जैसी है 

अनवरत नियमों के साथ रहना

पर मैं क्यों प्रकृति के विरुद्ध? 

साँसें का चलना, दिल का धड़कना

यही तो नियम है

पर मैं प्रफुल्लित क्यों नहीं?

नदी-बादल-आग-सूरज 

वे तल्लीन हैं अपने बहाव में

अकेले होकर भी ख़ुश 

प्रकृति के नियमों से बँधे, सिर्फ़ अपने साथ

 कोई हड़बड़ी,  घबराहट

 कुछ छूटने का डर,  कुछ पाने की लालसा 

शायद यही जीवन है

फ़लसफ़ा भले कुछ भी हो

पर सत्य तो यही है

ये प्रवाहमय होकर दूसरों को सुख पहुँचाते हैं 

स्वयं भी आह्लादित रहते हैं। 

प्रवाहमान तो मैं भी हूँ 

पर  मैं ख़ुश हूँ,  कोई मुझसे

यह कैसा जीवन?

 अपने लिए है,  किसी के लिए

मैंने कभी जीकर क्यों  देखा?

शायद जीकर देखा होता

सिर्फ़ अपने लिए जीकर देखा होता

तो बात ही कुछ और होती 

प्रकृति ने हँसने को कहा 

मैंने जबरन हँसी ओढ़ी 

मुझसे कहा गया कि नाचूँ-गाऊँ

मैंने सिनेमा का कोई दृश्य चला दिया

सबने कहा फ़र्ज़ निभाओ

ख़ामोशी से फ़र्ज़ निभा दिया

इन सब में मैं कहाँ?

यह यायावर मन  अपना,  किसी का

शहर के बियाबान में भटककर

आकाश में एक चिनगारी ढूँढता। 

अब भी समय है

आस है तो प्राण है

प्राण है तो जीवन है

भले कुछ भी अपना नहीं 

 सगा  सखा

पर जीवन तो है

एक बार अपने लिए जीकर देखना है


-जेन्नी शबनम (16.11.2023)
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