शुक्रवार, 18 मार्च 2022

741. दुलारी होली (होली पर 15 हाइकु)

दुलारी होली

*** 

1. 
दे गया दग़ा    
रंगों का ये मौसम,   
मन है कोरा।   

2. 
छूके गुज़रा   
कर अठखेलियाँ   
मौसमी-रंग।   

3. 
होली आई   
मन ने दग़ा किया   
उसे भगाया।   

4. 
दुलारी होली   
मेरे दुःख छुपाई   
देती बधाई।   

5. 
सादा-सा मन   
होली से मिलकर   
बना रंगीला।   

6. 
होलिका-दिन   
होलिका जल मरी   
कमाके पुण्य।   

7. 
फगुआ मन   
जी में उठे हिलोर   
मचाए शोर।   

8. 
छाये उमंग   
खिलखिलाते रंग   
बसन्ती मन।   

9. 
ख़ूब बरसे   
ज्यों दारोगा की लाठी   
रंग-अबीर।   

10. 
बिन रँगे ही   
मन हुआ बसन्ती   
रुत है प्यारी।   

11. 
कैसी ये होली   
रिश्ते-नाते छिटके   
अकेला मन।   

12. 
छुपके आई   
कुंडी खटखटाई   
होली भौजाई।   

13. 
माई न बाबू   
मन कैसे हो क़ाबू,   
अबकी होली।   

14. 
अबकी साल   
मन हो गया जोगी,   
लौट जा होली!   

15. 
पी ली है भाँग   
लड़खड़ाती होली   
धप्प से गिरी। 

-जेन्नी शबनम (18.3.2022)
___________________

मंगलवार, 8 मार्च 2022

740. एक दिन मुक्ति के नाम

एक दिन मुक्ति के नाम 

*** 

कभी अधिकार के लिए शुरु हुई लड़ाई   
हमारी ज़ात को ज़रा-सा हक़ दे गई   
बस एक दिन, राहत की साँसें भर लूँ   
ख़ूब गर्व से इठलाऊँ, ख़ूब तनकर चलूँ   
मेरा दिन है, आज बस मेरा ही दिन है   
पर रात से पहले, घर लौट आऊँ।
   
बैनर, पोस्टर, हर जगह छा गई स्त्री    
लड़की बचाओ, लड़की पढ़ाओ   
लड़की-लड़की, महिला-महिला    
बहन, बेटी, माँ, प्रेमिका अच्छी   
मानो आज देवी बन गई स्त्री    
रोज़ जो होती थी वह कोई और है   
आज है कोई नई स्त्री।
   
एक पूरा दिन करके स्त्री के नाम   
छीन ली गई सोचने की आज़ादी   
बारह मास की ग़ुलामी   
और बदले में बस एक दिन   
जिसमें समेटना है साल का हर दिन।
   
कभी जीती थी हर बाज़ी   
पर हार गई स्त्री    
सदियों से लड़ती रही   
पर हार गई स्त्री!
   
अब किसे लानत भेजी जाए?   
उन गिनी-चुनी स्त्रियों को   
जिनके सफ़र सुहाने थे   
जिनके ज़ख़्मों पर मलहम लगे   
इतिहास के कुछ पन्ने जिनके नाम सजे   
और बाक़ियों को उन 'कुछ' की एवज़ में   
यह कहकर मानसिक बन्दी बनाया गया-   
तुमने क्रान्ति की, देखो कितनी आज़ाद हो   
कभी किताबें तो पढ़कर देखो   
तुम केवल अक्षरों को याद हो   
लड़कों की तरह तुम्हारी परवरिश होती है   
देखो तुम्हारे हक़ में कितने कानून हैं   
तुम्हें विधान से इतनी ताक़त मिली   
जब चाहे हमें फँसा सकती हो   
तुम्हारे सामने हमारी क्या औक़ात   
हे देवी! हम पुरुषों पर दया करो! 
  
आज महिला दिवस है   
पूरी दुनिया की स्त्रियाँ जश्न मनाएँगी   
पर यह भी सच है आज के दिन   
कई स्त्रियों की जिस्म लुटेगा, बाज़ार में बिकेगा   
आग और तेज़ाब में जलेगा   
कइयों को माँ की कोख में मार दिया जाएगा   
बैनरों-पोस्टरों के साथ   
स्त्री की काग़ज़ी जीत पर नारा बुलन्द होगा   
छल-प्रपंच का तमाचा   
अन्ततः हमारे ही मुँह पर पड़ेगा।
   
कोई कुतिया कहकर   
बदन नोच-नोचकर खाएगा   
कोई डायन कहकर   
ज़मीन पर पटक-पटककर मार डालेगा   
रंडी बनाकर उसका सगा ही कमाई उड़ाएगा   
बेटी जनने वाली पापिन कहकर   
उसका आदमी ही उसे घर से निकालेगा   
या ब्याह दी जाएगी उसके साथ   
जो रोज़ जबरन भोगेगा   
या ज़ेवरों से लादकर आजीवन हुक़्म चलाएगा। 
  
आज के दिन मैं इतराऊँगी   
स्त्री होने पर फ़ख़्र करूँगी   
क़र्ज़ सही, ख़ैरात सही   
एक दिन जो मिला   
हम स्त्रियों को मुक्ति के नाम। 
  
क्यों आज अपनी हर साँसों के लिए   
किसी मर्द से फ़रियाद की जाए   
सौ बरस तक साँसें लें   
और बस एक दिन की ज़िन्दगी जी जाए।
   
मैं ख़ुद को धिक्कारती हूँ   
क्यों बस एक दिन की भीख माँगती हूँ   
क्यों नहीं होता हर दिन   
स्त्री-पुरुष का बराबर दिन!

-जेन्नी शबनम (8.3.2022)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस) 
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सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

739. अलगनी

अलगनी 

*** 

हर रोज़ थक-हारकर टाँग देती हूँ ख़ुद को खूँटी पर   
जहाँ से मौन होकर देखती-सुनती हूँ, दुनिया का जिरह   
कभी-कभी जीवित महसूस करने के लिए   
ख़ुद को पसार आती हूँ, अँगना में अलगनी पर   
जहाँ से घाम मेरे मन में उतरकर 
हर ताप को सहने की ताक़त देता है   
और हवा देश-दुनिया की ख़बर सुनाती है। 
   
इस असंवेदी दुनिया का हर दिन 
ख़ून में डूबा होता है   
जाति-धर्म के नाम पर क़त्ल 
मन-बहलावा-सा होता है   
स्त्री-पुरुष के दो संविधान 
इस युग के विधान की देन है   
हर विधान में दोनों की तड़प   
अपनी-अपनी जगह जायज़ है। 
   
क्रूरता का कोई अन्त नहीं दिखता   
अमन का कोई रास्ता नहीं सूझता    
संवेदनाएँ सुस्ता रही हैं किसी गुफा में   
जिससे बाहर आने का द्वार बन्द है   
मधुर स्वर या तो संगीतकार के ज़िम्मे है   
या फिर कोयल की धरोहर बन चुकी है। 
   
भरोसा? ग़ैरों से भले मिल जाए   
पर अपनों से...ओह!
   
बहुत जटिलता, बहुत कुटिलता   
शरीर साबुत बच भी जाए    
पर अपनों के छल से मन छिलता रहता है   
दीमक की भाँति, पीड़ा तन-मन को 
अन्दर से खोखला करती रहती है। 
   
ज़िन्दगी पल-पल बेमानी हो रही है   
छल, फ़रेब, क्रूरता, मज़लूमों की पीड़ा   
दसों दिशाओं से चीख-पुकार गूँजती रहती है 
मन असहाय, सब कुछ असह्य लगता है   
कोई गुहार करे भी तो किससे करे? 
  
कुछ ख़ास हैं, कुछ शासक हैं
अधिकांश शोषित हैं   
किसी तरह बचे हुए कुछ आम लोग भी हैं   
जो मेरी ही तरह आहें भरते हुए 
खूँटी पर ख़ुद को रोज़ टाँग देते हैं   
कभी-कभी कोटर से निकल 
अलगनी पर पसरकर जीवन तलाशते हैं। 
   
बेहतर है, मैं खूँटी पर यों ही रोज़ लटकती रहूँ   
कभी-कभी जीवित महसूस करने के लिए   
धूप में अलगनी पर ख़ुद को टाँगती रहूँ   
और ज़माने के तमाशे देख 
ज्ञात को कोसती रहूँ।   

-जेन्नी शबनम (20.2.2022)
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शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

738. वसन्त पञ्चमी (वसन्त पञ्चमी पर 10 हाइकु)

वसन्त पञ्चमी 

*** 


1. 
पीली सरसों   
आया जो ऋतुराज   
ख़ूब है खिली।   

2. 
ज्ञान की चाह   
है वसन्त पञ्चमी   
अर्चन करो।   

3. 
पावस दिन   
ये वसन्त पञ्चमी   
शारदा आईं।   

4. 
बदली ऋतु,   
काश! मन में छाती   
वसन्त ऋतु।   

5. 
अब जो आओ   
ओ ऋतुओं के राजा!   
कहीं न जाओ।   

6. 
वाग्देवी ने दीं   
परा-अपरा विद्या,   
हुए शिक्षित।   

7. 
चुनरी रँगा   
वसन्त रंगरेज़   
धरा लजाई।   

8. 
पीला-ही-पीला   
वसन्त जादूगर   
फूल व मन।   

9. 
वसन्त ऋतु!   
अब नहीं लौटना   
हाथ थामना।   

10.
हे पीताम्बरा!   
सदा साथ निभाना   
चेतना तुम। 

-जेन्नी शबनम (5.2.2022)
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रविवार, 23 जनवरी 2022

737. समय (10 क्षणिका)

समय 

***


1.
समय 

समय हर बार मरहम नहीं बनता  
कई बार पुराने से ज़्यादा बड़ा घाव दे देता है
जो ताउम्र नहीं भरता 
उस घाव का 
सड़ना, गलना और मवाद का बहना देख
अपनी ताक़त पर घमण्ड करता समय 
हाथ बाँधे अकड़कर खड़ा रहता है।


2.
रुदाली 

मन में अनुभव की किरचें हैं
जो हर घड़ी चुभती हैं
चुप ज़ुबान में गीतों की लड़ी है  
जो रुदन बन गूँजती है 
बिखरते सपनों की छटपटाहट है  
जो हर घड़ी टीस देती है 
दर्द के फाहे से दर्द को पोंछती हूँ 
और अपनी साँसे कुतरती हूँ 
ज़िन्दगी की अरथी सजी है  
मैं रुदाली बन गई हूँ। 


3.
नटी

यूँ मानो तनी हुई रस्सी पर
नटी की तरह कलाबाज़ी सीख ली है  
गिरते-पड़ते-उठते 
संतुलन बना लिया मैंने  
अब अग्रसर हूँ 
जीवन जीने की कला के साथ।
 

4.
काग़ज़ 

मैं फूल-सी जन्म लेकर
एक समर्थ लड़की बनी
दुनिया के तीखे बोल से
मैं फूल से पत्थर बनी
अपने दर्द ख़ुद से कहकर
पत्थर से काग़ज़ बनी
अब हर्फ़-हर्फ़ बिखरी हूँ मैं
काग़ज़ों में रची हूँ मैं
अपने दिए ज़ख़्मों को
अब तुम सब ख़ुद ही पढ़ो।


5.
गाँठ 

मानो या  मानोफ़रेब नहीं था
बस नादानियाँ थीं थोड़ी
जिसने  जीने दिया  मरने
दिल की दहलीज़ पर एक गाँठ पड़ गई
जिससे रिश्तों की डोरी छोटी पड़ गई
मन में चुभती ये गाँठें
जज़्बात को हद में रखती हैं। 


6.
देर न हो जाए

बेहद कठिन होता है
पीली पड़ती पत्तियों को हरा रखना 
मर रहे पौधों को जिलाना 
बीत चुके मौसम को यादों में वापस बुलाना,
देर न हो जाए, सँभल जाओ
वर्ना सारे तर्क और सारे फ़लसफ़े
धरे रह जाएँगे 
और झंकृत दुनिया वीरान हो जाएगी,
समय को मुरझाने से पहले सींच लो।


7.
मिन्नत 

चाँदनी की चाह में
करती रही चाँद से मिन्नतें 
चाँद दग़ा दे गया
अपनी चाँदनी ले गया
जाने किसे दे दिया
मुझमें अमावस भर गया 
हाय! ये क्या कर गया 
क्यों बेवफ़ा हो गया। 


8.
ताप भर नाता 

ताप भर नाता 
दिल में बचाए रखना
जब सामने रास्ता होगा
पर ज़िन्दगी चल न सकेगी
ठण्डी पड़ रही साँसों को
तब ज़रूरत होगी।


9.
संगदिल 

जाओ! तुम सबको आज़ाद किया 
सम्बन्ध और कर्तव्य से, 
संगदिल के साथ 
कुछ वक़्त गुज़ारा जा सकता है 
तमाम उम्र नहीं। 


10.
इस दुनिया के उस पार 

अपनी समस्त आकांक्षाओं के साथ 
चली जाना चाहती हूँ  
सबसे दूर, बहुत दूर 
इस दुनिया के उस पार 
जहाँ से मेरी पुकार 
कभी किसी तक न पहुँचे। 
 

-जेन्नी शबनम (1.1.2022)
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गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

736. मरजीना (10 क्षणिका)

मरजीना 
******* 

1. 
मरजीना 
*** 
मन का सागर दिन-ब-दिन और गहरा होता जा रहा   
दिल की सीपियों में क़ैद मरजीना बाहर आने को बेकल   
मैंने बिखेर दिया उन्हें कायनात के वरक़ पर।
-0- 

2. 
कुछ 
*** 
सब कुछ पाना, ये सब कुछ क्या?   
धन दौलत, इश्क़ मोहब्बत, या कुछ और?   
जाने इस 'कुछ' का क्या अर्थ है।
-0- 

3. 
मौसम 
*** 
बात-बात में गुज़रा है मौसम   
आँखों में रीत गया है मौसम   
देखो बदल गया है मौसम   
हिज्र का आ गया है मौसम। 
-०- 

4. 
हाथ नहीं आता 
*** 
समय असमय टटोलती रहती हूँ   
अतीत के किस्सों की परछाइयाँ   
नींद को बुलाने की जद्दोजहद ज़ारी रहती है   
सब कुछ गडमगड हो जाता है   
रात बीत जाती है, कुछ भी हाथ नहीं आता   
न सपने, न सुख, न मेरे हिस्से के किस्से। 
-०- 

5. 
विलीन 
*** 
ऐतिहासिक सुख, प्रागैतिहासिक दुःख   
सब के सब विलीन हो रहे हैं वर्तमान में   
घोर पीड़ा-पराजय, घोर उमंग-आनंद   
क्या सचमुच विलीन हो सकते हैं   
वर्तमान की आगोश में?   
नहीं-नहीं, वे दफन हैं ज़ेहन में   
साँसों की सलामती और   
महज़ ख़ुद के साथ होने तक।
-०- 

6. 
युद्धरत 
*** 
युद्धरत मन में   
तलवारें जाने कहाँ-कहाँ किधर-किधर   
घुसती है, धँसती हैं   
लहू नहीं सिर्फ़ लोर बहता है   
अपार पीड़ा, पर युद्धरत मन हारता नहीं   
ज़्यादा तीव्र वार किसका   
सोचते-सोचते   
मुट्ठी में कस जाती है तलवार की मूठ। 
-०- 

7. 
जला सूरज 
*** 
उस रोज़ चाँद को ग्रहण लगा   
बौख़लाया जाने क्यों सूरज   
सूर्ख़ लाल लहू से लिपट गई रात   
दिन की चीख़ से टूट गया सूरज   
शरद के मौसम में  
धू-धू कर जला सूरज। 
-०- 

8. 
क़र्ज़ और फ़र्ज़ 
*** 
क़र्ज़ और फ़र्ज़ चुकाने के लिए   
जाने कितने जन्म लिए   
कंधों पर से बोझ उतरता नहीं   
क़र्ज़ जो अनजाने में मिला   
फ़र्ज़ जो जन्म से मिला   
कुछ भी चुक न सका   
यह उम्र भी यूँ ही गुज़र गई   
अब फिर से एक और जन्म   
वही क़र्ज़ वही फ़र्ज़   
आह! अब और नहीं! 
-०-

9. 
समझौता 
*** 
वर्जनाओं को तोड़ना   
कई बार कठिन नहीं लगता   
कठिन लगता है   
उनका पालन या अनुसरण करना   
पर करना तो होता है, मन या बेमन   
यह समझौता है, जिसे आजीवन करना होता है। 
-०- 

10. 
जिजीविषा 
*** 
सपनों और उम्मीदों का मरना   
जिजीविषा का ख़त्म होना है   
पर कभी-कभी ज़िन्दा रहने के लिए   
सपनों और उम्मीदों को मारना होता है   
और जीवन जीना होता है।   
जीवित रहना और दिखते रहना   
दोनों लाज़िमी है। 
-०- 

- जेन्नी शबनम (2. 12. 2021)
____________________ 

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

735. हाँ! मैं बुरी हूँ

हाँ! मैं बुरी हूँ 

***

मैं बुरी हूँ   
कुछ लोगों के लिए बुरी हूँ   
वे कहते हैं-   
मैं सदियों से मान्य रीति-रिवाजों का 
पालन नहीं करती   
मैं अपने सोच से दुनिया समझती हूँ   
अपनी मनमर्ज़ी करती हूँ, बड़ी ज़िद्दी हूँ।
   
हाँ! मैं बुरी हूँ   
मुझे हर मानव एक समान दिखता है   
चाहे वह शूद्र हो या ब्राह्मण   
चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान   
मैं तथाकथित धर्म का पालन नहीं करती   
मुझे किसी धर्म पर न विश्वास है, न आस्था   
मुझे महज़ एक ही धर्म दिखता है- 
इन्सानी प्यार।  
 
मैं स्त्री होकर वह सब करती हूँ 
जो पुरुषों के लिए जायज़ है   
मगर स्त्रियों के लिए नाजायज़   
जाने क्यों मुझे मित्रता में स्त्री-पुरुष अलग नहीं दिखते   
किसी काम में स्त्री-पुरुष के दायित्व का 
बँटवारा उचित नहीं लगता। 
  
मैं अपने मन का करती हूँ   
घर परिवार को छोड़कर अकेले सिनेमा देखती हूँ   
अकेले कॉफ़ी पीने चाली जाती हूँ   
अपने साथ के लिए किसी से गुज़ारिश नहीं करती।  
 
भाग-दौड़ में मेरा दुपट्टा सरक जाता है   
मैं दुपट्टे को सही से ओढ़ने की तहज़ीब नहीं जानती   
दुपट्टे या आँचल में शर्म क़ैद है, यह सोचती ही नहीं। 
  
समय-चक्र के साथ मैं घूमती रही   
न चाहकर भी वह काम करती रही 
जो समाज के लिए सही है   
भले इसे मानने में हज़ारों बार मैं टूटती रही। 
  
स्त्रियाँ तो अन्तरिक्ष तक जाती हैं   
मैं घर-बच्चों को जीवन मान बैठी   
ये ही मेरे अन्तरिक्ष, मेरे ब्रह्माण्ड, मेरी दुनिया   
यही मेरा जीवन और यही हूँ मैं। 
  
जीवन में कभी कुछ किया नहीं   
सिर्फ़ अपने लिए कभी जिया नहीं   
धन उपार्जन किया नहीं   
किसी से कुछ लिया नहीं।  
 
जीवन से जो खोया-पाया लिखती हूँ   
अपनी अनुभूतियों को शब्दों में पिरोती हूँ   
जो हूँ, बस यही हूँ   
यही मेरी धरोहर है और यही मेरा सरमाया है।  
 
मैं भले बुरी हूँ   
पर रिश्ते या ग़ैर, जो प्रेम दें, वही अपने लगते हैं   
मुझे कोई स्वीकार करे या इन्कार    
मैं ऐसी ही हूँ। 
  
जानती हूँ 
मेरे अपने मुझसे बदलने की उम्मीद नहीं करते   
जो चाहते हैं कि मैं ख़ुद को पूरा बदल लूँ   
वे मेरे अपने हो नहीं सकते   
जिसके लिए मैं बुरी हूँ, तों हूँ  
अपने और अपनों के लिए अच्छी हूँ, तो हूँ।  
 
मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मेरे अपने हज़ारों हैं   
उन्हीं के लिए शायद मैं इस जग में आई   
बस उन्हीं के लिए मेरी यह सालगिरह है। 

-जेन्नी शबनम (16.11.2021)
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मंगलवार, 12 अक्टूबर 2021

734. हथेली गरम-गरम

हथेली गरम-गरम 

******* 

रात हो मतवाली-सी   
सपने पके नरम-नरम   
सुबह हो प्यारी-सी   
दिन हो रेशम-रेशम   
मन में चाहे ढेरों संशय   
रस्ता दिखे सुगम-सुगम   
सुख-दुःख दोनों जीवन है   
मन समझे सहज-सहज   
जीवन में बना रहे भरम   
खुशियाँ हों सब सरल-सरल   
कम न पड़े कोई भी छाँव   
रिश्ते सँभालो सँभल-सँभल   
चाहे गुज़रे कोई पहर   
हाथ में एक हथेली गरम-गरम।   

- जेन्नी शबनम (12. 10. 2021) 
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गुरुवार, 2 सितंबर 2021

733. बेइख़्तियार हूँ (8 क्षणिका)

बेइख़्तियार हूँ 

*******

1.
बेइख़्तियार हूँ 
*** 
भावनाएँ और संवेदनाएँ   
अपनी राह से भटक चुकी हैं   
अब शब्दों में पनाह नहीं लेती   
आँखों में घर कर चुकी है   
कभी बदली बन तैरती है   
कभी बारिश बन बरसती है   
बेइख़्तियार हूँ   
वक़्त, रिश्ते और ख़ुद पर   
हर नियंत्रण खो चुकी हूँ।


2.
नाजुक टहनी 
***
हम सपने बीनते रहे   
जो टूटकर गिरे थे आसमान की शाखों से   
जिसे बुनकर हम ओढ़ा आए थे कभी   
आसमान को    
ज़रा-सी धूप, हवा, पानी के वास्ते,   
आसमान की नाज़ुक टहनी   
सँभाल न सकी थी मेरे सपनों को। 


3.
हदबंदी
***
मन की हदबंदी, ख़ुद की मैंने   
जिस्म की हदबंदी, ज़माने ने सिखाई   
कुल मिलाकर हासिल- अकेलापन   
परिणाम- जीवन की हदबंदी   
जो तब टूटेगी जब साँसें टूटेगी   
और टूट जाएँगे वे तमाम हद   
जो जन्म के साथ हमारी जात को   
पूरी निगरानी के साथ तोहफ़े में मिलते हैं।


4.
इंकार 
***
मेरी ख़ामोशियाँ चीखकर मुझे बुलाती हैं   
सन्नाटे के कोलाहल से व्यथित मेरा मन   
ख़ुद तक पहुँचने से इंकार कर रहा है   
नहीं चाहता मुझ तक कुछ भी पहुँचे।


5.
लम्बी ज़िन्दगी 
***
यह दर्द ठहरता क्यों नहीं?   
मुझसे ज़्यादा लम्बी ज़िन्दगी   
शायद दर्द को मिली है। 


6.
ताकीद 
***
बढ़ती उम्र ने ताकीद की-   
वक़्त गुज़र रहा है   
पर जाने क्यों ठहरा हुआ-सा लगता है   
सिर्फ़ मैं दौड़ती हूँ अकेली भागती हूँ   
चलो, तुम भी दौड़ो मेरे साथ   
मेरे बिना तुम कहाँ?


7.
मीठी 
******* 
मैं इतनी मीठी बन गई    
कि मेरी नसों में मिठास भर गई   
और ज़िन्दगी तल्ख़ हो गई। 


8.
नींद
*** 
सपने आकार द्वार खटखटाते   
नींद न जाने किधर चल देती   
सारी दुनिया की सैर कर आती   
मुझसे नज़रें रोज़ चुराती   
न दवा की सुनती न मिन्नतें सुनती   
अहंकारी नींद जब मर्ज़ी तब ही आती   
सपनो से मैं मिल ना पाती।   

- जेन्नी शबनम (1. 9. 2021)
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रविवार, 18 जुलाई 2021

732. पापा

पापा 

***

ख़ुशियों में रफ़्तार है इक   
सारे ग़म चलते रहे   
तुम्हारे जाने के बाद भी   
यह दुनिया चलती रही और हम चलते रहे   
जीवन का बहुत लम्बा सफ़र तय कर चुके    
एक उम्र में कई सदियों का सफ़र कर चुके। 
   
अब मम्मी भी न रही   
तमाम पीड़ाओं से मुक्त हो गई   
तुमसे ज़रूर मिली होगी   
बिलख-बिलखकर रोई होगी   
मम्मी ने मेरा हाल बताया होगा   
ज़माने का व्यवहार सुनाया होगा   
जाने के बाद तुम तो हमको भूल गए   
जाने क्यों मेरे सपने से भी रूठ गए   
बस एक बार आए फिर कभी न आए   
न बुलाने के लिए कहकर चले गए। 
   
पर जानते हो पापा   
एक सप्ताह पहले   
तुम, मम्मी, दादी मेरे सपने में आए   
पापा! तुम मेरे सपने में फिर से मरे   
मम्मी ने तुम्हारा दाह-संस्कार किया   
पर तब भी जाने क्यों तुम हमको न दिखे   
आग ने भी तुम्हारे नाम न लिखे   
जैसे सच में मरने के बाद 
हम तुमको न देख सके थे   
तुमसे लिपटकर रो न सके थे। 
   
जाने कैसा रहस्य है   
मम्मी-दादी सपने में सदा साथ रहती है   
पर मेरी परेशानियों के लिए कोई राह नहीं बताती है। 
   
किससे कुछ भी कहें पापा   
तुम ही कुछ तो बताओ पापा   
जानती हूँ हमसे भी अधिक 
भाग्यहीनों से संसार भरा है   
दुनिया का दर्द शायद मेरे दर्द से भी बड़ा है   
हमसे भी अधिक बहुतों की पीड़ा है   
फिर भी मन की छटपटाहट कम नहीं होती   
ज़ख़्मों को तौलने की इच्छा नहीं होती   
जीने की वज़ह नहीं मिलती। 
   
मन रोता है, तड़पता है   
दुःख में तुमको ही खोजता है   
बस एक बार सपने में आकर   
कुछ तो कह जाओ   
न कहो, एक बार बस दिख जाओ   
जानती हूँ   
समय-चक्र का यही हिसाब-किताब है   
हमको आज भी तुमसे उतना ही प्यार है   
पापा! तुम्हारी बेटी को 
तुम्हारे एक सपने का इन्तिज़ार है। 

-जेन्नी शबनम (18.7.2021)
(पापा की 43वीं पुण्यतिथि पर) 
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रविवार, 4 जुलाई 2021

731. प्यारी नदियाँ (36 हाइकु)

प्यारी नदियाँ (36 हाइकु)

*** 

1. 
नद से मिली   
भोरे-भोरे किरणें   
छटा निराली।   

2. 
गंगा पावन    
नहीं होती अपावन   
भले हो मैली।   

3. 
नदी की सीख-   
हर क्षण बहना   
नहीं थकना।   

4. 
राजा या रंक   
सबके अवशेष   
नदी का अंक।   

5. 
सदा हरती   
गंगा पापहारिणी   
जग के पाप।   

6. 
नदी का धैर्य   
उसकी विशालता,   
देती है सीख।   

7. 
दुःखहारिणी   
गंगा निर्झरनी   
पापहारिणी।   

8. 
अपना प्यार   
बाँटती धुआँधार   
प्यारी नदियाँ।   

9. 
सरिता-घाट   
तन अग्नि में भस्म   
अन्तिम सत्य।   

10. 
सबके छल   
नदी है समेटती   
कोई न भेद।   

11. 
सरजू-तीरे   
महाकाव्य-सर्जन   
तुलसीदास।   

12. 
तड़पी नदी   
सागर से मिलने,   
मानो हो पिया।   

13. 
बेपरवाह   
मिलन को बेताब   
नदी बावरी।   

14. 
सिन्धु से मिली   
सर्प-सी लहराती   
नदी लजाती।   

15. 
नदियाँ प्यासी   
प्रकृति का दोहन   
इन्सान पापी।   

16. 
तीन नदियाँ   
पुराना बहनापा   
साथ फिरतीं।   

17. 
बढ़ी आबादी   
कहाँ से लाती पानी   
नदी बेचारी।   

18. 
नदी का तट   
सभ्यता व संस्कृति   
सदियाँ जीती।   

19. 
मीन झाँकती,   
पारदर्शी लिबास   
नदी की कोख।   

20. 
खूब निभाती   
वर्षा से बहनापा   
साथ नहाती।   

21. 
बूझो तो कौन?   
खाती-ओढ़ती जल   
नदी और क्या!   

22. 
कोई न सुना   
बिलखती थी नदी   
पानी के बिना।   

23. 
नदी के तीरे   
देवताओं का घर   
अमृत भर।   

24. 
नदी बहना!   
साथ लेके चल ना   
घूमने जग।   

25. 
बाढ़ क्यों लाती?   
विकराल बनके   
क्यों हो डराती?   

26. 
चन्दा-सूरज   
नदी में नहाकर   
काम पे जाते।   

27.   
मिट जाएगा   
तुम बिन जीवन,   
न जाना नदी!   

28. 
दूर न जाओ   
नदी, वापस आओ   
मत गुस्साओ।   

29. 
डूबा जो कोई   
निरपराध नदी   
फूटके रोई।   

30. 
हो गईं मैली   
बेसहारा नदियाँ   
कैसे नहाए?   

31. 
बहती नैया   
गीत गाए खेवैया   
शांत दरिया।   

32. 
पानी दौड़ता   
तटबन्ध तोड़के,   
क्रोधित नदी।   

33. 
तुझमें डूबे   
सोहनी-महिवाल   
प्यार का अन्त।   

34. 
नदियाँ सूखी,   
बदरा बरस जा!   
उनको भिगा।   

35. 
अपनी पीर   
सिर्फ़ सागर से क्यों   
मुझे भी कह।   

36. 
मीन मरती   
पी ज़हरीला पानी   
नदियाँ रोती।   

-जेन्नी शबनम (13.5.2021)
('अप्रमेय' (2021), डॉ. भीकम सिंह जी द्वारा संपादित पुस्तक में प्रकाशित) 
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शुक्रवार, 25 जून 2021

730. पखेरू (8 हाइकु)

पखेरू 

(8 हाइकु) 

***

1. 
नील गगन   
पुकारता रहता-   
पाखी, तू आ जा!   

2. 
उड़ती फिरूँ   
हवाओं-संग झूमूँ   
बन पखेरू।   

3. 
कतरे पंख   
पर नहीं हारूँगी,   
फिर उडूँगी।   

4. 
चकोर बोली-   
चन्दा छूकर आएँ   
चलो बहिन।   

5. 
मन चाहता,   
स्वतन्त्र हो जीवन   
मुट्ठी में विश्व।   

6. 
उड़ना चाहे   
विस्तृत गगन में   
मन पखेरू।   

7. 
छूना है नभ   
कामना पहाड़-सी   
हौसला पंख।   

8. 
झूमता मन,   
अनुपम प्रकृति   
संग खेलती।   

-जेन्नी शबनम (18.6.2021)
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सोमवार, 21 जून 2021

729. योग

योग 

******* 

जीवन जीना सरल बहुत   
अगर समझ लें लोग   
करें सदा मनोयोग से   
हर दिन थोड़ा योग।   

हजारों सालों की विद्या   
क्यों लगती अब ढोंग   
आओ करें मिलकर सभी   
पुनर्जीवित ये योग।   

साँसे कम होतीं नहीं   
जो करते रहते योग   
हमको करना था यहाँ   
अपना ही सहयोग।   

इस शतक के रोग से   
क्यों जाते इतने लोग   
अगर नियम से देश में   
घर-घर होता योग।   

दे गया गहरा ज्ञान भी   
कोरोना का यह सोग   
औषधि लेते रहते पर   
संग करते हम सब योग।   

चमत्कार ये योग बना   
दूर भगा दे रोग   
तन अपना मंदिर बना   
पूजा अपना योग।   

जीवन के अवलम्ब हैं   
प्रकृति, ध्यान व योग   
तन का मन का हो नियम   
सरल साधना जोग।   

- जेन्नी शबनम (9. 6. 2021) 
(अंतरराष्ट्रीय योग दिवस, 21. 6. 21) 
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रविवार, 20 जून 2021

728. ओ पापा!

ओ पापा! 

******* 

ओ पापा!   
तुम गए   
साथ ले गए   
मेरा आत्मबल   
और छोड़ गए मेरे लिए   
कँटीले-पथरीले रास्ते   
जिसपर चलकर   
मेरा पाँव ही नहीं मन भी   
छिलता रहा।   
तुम्हारे बिना   
जीवन की राहें बहुत कठिन रहीं   
गिर-गिरकर ही सँभलना सीखा   
कुछ पाया बहुत खोया   
जीवन निरर्थक चलता रहा।   
तुम्हारी यादें   
और चिन्तन-धारा को   
मन में संचितकर   
अब भरना है स्वयं में आत्मविश्वास   
और उतरना है   
जीवन-संग्राम में।   
भले अब   
जीवन के अवसान पर हूँ   
पर जब तक साँस तब तक आस।   

- जेन्नी शबनम (20. 6. 2021) 
(पितृ दिवस)
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शुक्रवार, 18 जून 2021

727. एक गुलमोहर का इन्तिज़ार है

एक गुलमोहर का इन्तिज़ार है

*** 

उम्र के सारे वसन्त वार दिए   
रेगिस्तान में फूल खिला दिए   
जद्दोजहद चलती रही एक अदद घर की   
रिश्तों को सँवारने की   
हर डग पर चाँदनी बिखराने की   
हर कण में सूरज उगाने की। 
   
अन्ततः मकान तो घर बना   
परन्तु किसी कोने पर मेरा कोई रंग न चढ़ा   
कोई भी कोना महफ़ूज़ न रहा   
न मेरे मन का, न घर का   
कोई कोना नहीं जहाँ सुकून बरसे   
सूरज, चाँद, सितारे आकर बैठें   
हमसे बतकहियाँ करते हुए जीवन को निहारें। 
   
धीरे-धीरे हर रिश्ता दरकता गया   
घर मकान में बदलता रहा   
सब बिखरा और पतझर आकर टिक गया 
अब यहाँ न फूल है, न पक्षियों के कलरव   
न हवा नाचती है, न गुनगुनाती है   
कभी भटकते हुए आ जाए   
तो सिर्फ़ मर्सिया गाती है। 
   
अब न सपना कोई, न अपना कोई   
मन में पसरा अकथ्य गाथा का वादा कोई   
धीरे-धीरे वीरानियों से बहनापा बढ़ा   
जीवन पार से बुलावा आया   
पर न जाने क्यों   
न इस पार, न उस पार   
कहीं कोई कोना शेष न रहा। 
   
जाने की आतुरता को किसी ने बढ़कर रोक लिया   
और मेरा गुलमोहर भी गुम हो गया   
जो हौसला देता था 
विपरीत परिस्थितियों में अडिग रहने का   
साहस और हौसला को ख़ाली मन में भरने का। 
   
अब न रिश्ते, न घर, न गुलमोहर   
न इस पार, न उस पार कोई ठौर   
जीवन के इस पतझर में   
एक गुलमोहर का इन्तिज़ार है।   

-जेन्नी शबनम (18.6.2021)
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सोमवार, 14 जून 2021

726. स्मृति (11 हाइकु)

स्मृति 
(11 हाइकु)

***

1. 
स्मृति में तुम   
जैसे फैला आकाश   
सुवासित मैं।   

2. 
क्षणिक प्रेम   
देता बड़ा आघात   
रोता है मन।   

3. 
अधूरी चाह   
भटकता है मन   
नहीं उपाय।   

4. 
कई सवाल   
सभी अनुत्तरित,   
किससे पूछें?   

5. 
मेरे सवाल   
उलझाते हैं मुझे,   
कैसे सुलझे?   

6. 
ज्यों तुम आए   
जी उठी मैं फिर से   
अब न जाओ।   

7. 
रूठ ही गई   
फुदकती गौरैया   
बगिया सूनी।   

8. 
मेरा वजूद   
नहीं होगा सम्पूर्ण   
तुम्हारे बिना।   

9. 
जाएगी कहाँ   
चहकती चिड़िया   
उजड़ा बाग़।   

10. 
पेड़ की छाँव   
पथिक का विश्राम   
अब हुई कथा।   

11. 
जिजीविषा है   
फिर क्यों हारना?   
यही जीवन।   

-जेन्नी शबनम (24.3.2011)
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बुधवार, 9 जून 2021

725. पुनर्जीवित

पुनर्जीवित 

*** 

मैं पुनर्जीवित होना चाहती हूँ   
अपने मन का करना चाहती हूँ   
छूटते सम्बन्ध, टूटते रिश्ते   
वापस पाना चाहती हूँ   
वह सब, जो निषेध रहा   
अब करना चाहती हूँ। 
   
आख़िरी पड़ाव पर पहुँचने के लिए   
अपने साये के साथ नहीं   
आँख मूँद किसी हाथ को थाम   
तेजी से चलना चाहती हूँ   
शिथिल शिराओं में थका रक्त   
दौड़ने की चाह रखता है। 
   
जीते-जीते कब जीने की चाह मिटी   
हौसले ने कब दम तोड़ा   
कब ज़िन्दगी से नाता टूटा   
चुप्पी ओढ़ बदन को ढोती रही   
एक अदृश्य कोने में रूह तड़पती रही। 
   
स्त्री हूँ 
शुरू और अन्त के बीच   
कुछ पल जी लेना चाहती हूँ   
कुछ देर को अमृत पीना चाहती हूँ   
मैं फिर से जीना चाहती हूँ   
मैं पुनर्जीवित होना चाहती हूँ।   

-जेन्नी शबनम (9.6.2021) 
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शनिवार, 5 जून 2021

724. पर्यावरण (20 हाइकु)

पर्यावरण (20 हाइकु) 

*** 

1. 
द्रौपदी-धरा   
दुश्शासन मानव   
चीर हरण।   

2. 
पाँचाली-सी भू   
कन्हैया भेजो वस्त्र!   
धरा निर्वस्त्र।   

3. 
पेड़ ढकती   
ख़ामोश-सी पत्तियाँ   
करें न शोर।   

4. 
वृद्ध पत्तियाँ   
चुपके झरी, फूटीं    
नई कोपलें।   

5.   
पुराना भूलो   
नूतन का स्वागत   
यही प्रकृति।   

6. 
पत्तियाँ नाची   
सावन की फुहार   
पेड़ हर्षाया।   

7. 
प्रकृति हाँफी   
जन से होके त्रस्त   
देगी न माफ़ी।   

8.
कैसा ये अन्त   
साँसें बोतलबन्द    
ख़रीदो, तो लो।   

9. 
मानव लोभी   
दुत्कारती प्रकृति-   
कब चेतोगे?   

10. 
कोई न पास   
साइकिल उदास,   
गाड़ी ही ख़्वाब।   

11. 
विषैले प्राणी   
विषाणु व जीवाणु   
झपटे, बचो!   

12. 
पीके गरल   
हवा फेंके ज़हर,   
दोषी मानव।   

13. 
हवा व पानी   
सब हैं प्रदूषित,   
काया दूषित।   

14. 
दूरी है बढ़ी   
प्रकृति को असह्य,   
झेलो मानव।   

15. 
प्रकृति रोती   
मानव विनाशक   
रोग व शोक।   

16. 
असह्य व्यथा   
किसे कहे प्रकृति   
नर असंवेदी।   

17. 
फैली विकृति   
अभिमानी मानव   
हारी प्रकृति।   

18. 
दुनिया रोई   
कुदरत भी रोई,   
विनाश लीला।   

19. 
पर्यावरण   
प्रदूषण की मार   
साँसें बेहाल।   

20. 
धुँध या धुआँ,   
प्रदूषित संसार,   
समझें कैसे?   

-जेन्नी शबनम (5.6.2021) 
(विश्व पर्यावरण दिवस)
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शुक्रवार, 4 जून 2021

723. जीने का करो जतन

जीने का करो जतन 

******* 

काँटों की तक़दीर में, नहीं होती कोई चुभन   
दर्द है फूलों के हिस्से, मगर नहीं देते जलन।   

शमा तो जलती है हर रात, ग़ैरों के लिए   
ख़ुद के लिए जीना, बस इंसानों का है चलन।   

तमाम उम्र जो बोते रहे, पाई-पाई की फ़सल   
बारहा मिलता नहीं, वक़्त-ए-आख़िर उनको कफ़न।   

उसने कहा कि धर्म ने दे दिया, ये अधिकार   
सिर ऊँचा करके, अधीनों का करते रहे दमन।   

जुनून कैसा छा रहा, हर तरफ़ है क़त्ल-ए-आम   
नहीं दिखता अब ज़रा-सा भी, दुनिया में अमन।   

जीने का भ्रम पाले, ज़िन्दगी से दूर हुआ हर इंसान   
'शब' कहती ये अन्तिम जीवन, जीने का करो जतन।   

जेन्नी शबनम (4. 6. 2021) 
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सोमवार, 31 मई 2021

722. सिगरेट (5 कविता)

सिगरेट 

***

1. 
अदना-सी सिगरेट (नवधा-197)
*** 
क्यों कहते हो कि उसे छोड़ दूँ 
अदना-सी, वह क्या बिगाड़ती है तुम्हारा?
मैंने समय इसके साथ ही गुज़ारा 
इसने ख़ुद को जलाए, दिया मुझको सहारा। 
   
इसके साथ मेरा वक़्त बेफ़िक्र रहता है   
और जीवन बेपरवाह चलता है   
तनहाइयों में एक वही तो है, जो साथ रहती है   
मनोदशा को बेहतर समझती है   
और मिज़ाजपुर्सी करती है   
ख़ुद को जलाकर बादलों-सा सफ़ेद धुआँ बनकर   
उसमें मेरी मनचाही आकृतियाँ गढ़ती है।
   
हाँ! मालूम है मुझे   
उसके साथ मेरी साँसे घट रही हैं   
मेरे फेफड़ों पर कालिख जम रही है   
पर वह तलब है मेरी, ज़रूरत है मेरी   
रगों में वह जीवन-वायु बन घुल चुकी है   
सिगरेट मेरी बेचैनी समझती है   
मेरी राज़दार, मेरे अकेलेपन की साथी   
मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ती है।
   
उसके बिना साँसें बचें भी तो क्या   
यों भी मौत तो एक दिन आनी है   
इसके साथ ही आए   
ज़िन्दगी और मौत इसके साथ ही सुहाती है   
दिल इसे छोड़कर किधर जाए।   

2. 
सिगरेट : इन्सान 
*** 
धीरे-धीरे फूँक-फूँककर   
सिगरेट को इन्सान राख बनाता है   
सिगरेट धीरे-धीरे अपनी गिरफ़्त में लेकर   
इन्सान को राख के ढेर तक पहुँचाती है   
अन्तिम सत्य- दोनों का राख में तब्दील होना   
तय वक़्त पर दोनों ख़ाक होते हैं   
एक दूसरे के ये अद्भुत यार   
एक दूजे को जलाकर ख़ाक में मिलते हैं   
जबतक जीते हैं दोनों यारी निभाते हैं।   

3. 
आख़िरी सिगरेट 
*** 
सिगरेट के राख बनने तक   
घड़ी की सूई बेलगाम भागती है   
शायद याद दिलाती है मुझे   
ज़ल्दी ही एक दिन राख बनना है   
सिगरेट थामे मेरी उँगलियाँ अक्सर काँप जाती है   
क्या पता इस उम्र की यह आख़िरी सिगरेट हो   
क्या पता यह अन्तिम कश हो   
या मेरी उम्मीद की अन्तिम साँसें   
जिसे सिगरेट के हवाले किया है।   

4. 
सिगरेट की यारी 
*** 
सब कहते- 
सिगरेट यार नहीं दुश्मन है   
जान लेकर कैसी यारी निभाती है?   
छोड़ दो न ऐसी यारी!   
पर जीने का सहारा कोई तो बताए   
सिगरेट से ज़्यादा कोई तो साथ निभाए   
एक वही तो है   
जो मेरे दर्द को समेटकर   
मेरे मन की आग से ख़ुद को जलाती है   
भले मेरा फेफड़ा जलता है   
पर मेरी ज़िन्दगी   
वाह! नशा ही नशा है   
इससे अच्छी कोई और है क्या?   

5. 
सिगरेट को श्रधांजलि 
***
चलो कहते हो तो छोड़ देते हैं   
उसे जीवन से दूर कर देते हैं   
पर वादा करो, सच्चा वाला वादा   
मेरे रिसते ज़ख़्मों पर मरहम लगाओगे   
मेरे हर दर्द पर तंज तो न कसोगे   
मेरी नाकामियों में साथ तो न छोड़ोगे?   
जब-जब हार मिले मेरा सम्बल बनोगे?   
हर हालात में मेरा साथ निभाओगे?   
नाराज़ हो जाऊँ, तब भी तुम प्यार करना न छोड़ोगे?   
हाँ! पक्का वादा, सच्चा वादा, प्यार का वादा!   
वाह! अब वादा कर लिया तुमने   
मालूम है, तुम कसमें निभाओगे   
अब मेरी बारी है वादा करने की   
सच्चा वाला, अच्छा वाला, प्यारा वाला वादा   
आज से सिगरेट को तिलांजलि   
आओ, दे दें उसे श्रद्धांजलि   
अब तुम में ही सिगरेट   
तुम्हें अर्पित पुष्पांजलि।   

-जेन्नी शबनम (31.5.2021)
(विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर)
_______________________

मंगलवार, 25 मई 2021

721. इश्क़ (10 क्षणिका)

श्क़ 

******* 

1.
इश्क़ एक सपना 
*** 
इश्क़ एक सपना   
टूटकर जुड़ता   
बेचैन करवटों में   
हर बार नया फिर से पलता   
मगर रह जाता   
सपना-सा सदा अधूरा। 
______________ 

2. 
इश्क़ एक तलवार
***
इश्क़ एक तलवार   
गर म्यान से बाहर   
एक झटका   
धड़ बदन से ग़ायब   
इश्क़-तलवार   
मन-म्यान के अन्दर। 
_________________ 

3. 
इश्क़ जैसे आँधी 
***
इश्क़ जैसे एक आँधी   
तूफ़ान की तरह आततायी   
सब मटियामेट   
ज़िन्दगी भी और दुनिया भी। 
____________________ 

4. 
इश्क़ जैसे सूरज
***
इश्क़ जैसे सूरज   
जीवन देता और ताप भी   
जिसके माप का पैमाना है 
मगर पकड़ से बाहर   
वो है तो जीवन है   
वो नहीं तो दुनिया नहीं। 
_________________ 

5. 
इश्क़ की दुनिया 
***
इश्क़ की दुनिया गज़ब की   
मिलना-बिछड़ना पर साथ-साथ होना   
न  कोई वायदा न कोई इसरार   
मन में बसा है प्यार   
भले छूट जाए संसार। 
__________________ 

6. 
फ़िज़ा में इश्क़ 
***
जाने ज़िन्दगी किसके जैसी   
न तेरे जैसी न मेरे जैसी   
थोड़ी खट्टी थोड़ी मीठी   
खट्टी-मीठी इमली जैसी   
सोंधी-सोंधी-सी तेरी खुशबू   
फ़िज़ा में इश्क़ ज़िन्दगी ऐसी। 
_____________________ 

7. 
इश्क़ इबादत 
***
दस्तूर-ए-मोहब्बत मालूम नहीं   
इश्क़ ही बस एक इबादत   
इतना ही मालूम है। 
______________________ 

8. 
इश्क़ का एक लम्हा 
***
अल्लाह! एक दुआ क़ुबूल करो   
क़यामत से पहले इतनी मोहलत दे देना   
दम टूटे उससे पहले   
इश्क़ का एक लम्हा दे देना। 
__________________________ 

9. 
इश्क़ पर क़ुर्बान 
***
इश्क़ के आयत की पर्ची   
यादों की ताबीज़ में बंदकर   
सिरहाने के दराज़ में छुपा दी   
अलामतें कोई न देखे,   
यादों की पूरनमासी यादों की अमावस   
यादों का चक्रव्यूह जीवन थक चला है  
अब यादों की ताबीज़ टूट ही जाए   
ज़िन्दगी इश्क़ पर कुर्बान हो जाए। 
_______________________ 

10.
इश्क़ की लकीर 
*** 
ज़िन्दगी के माथे पर नसीब का टीका   
ज़िन्दगी की हथेली पर इश्क़ की लकीर   
फिर उम्र को परवाह क्या   
पल भर मिले या सदियाँ रहे 

- जेन्नी शबनम (25. 5. 2021) 
______________________


मंगलवार, 18 मई 2021

720. अब डर नहीं लगता

अब डर नहीं लगता 

******* 

अब डर नहीं लगता!   
न हारने को कुछ शेष   
न किसी जीत की चाह   
फिर किस बात से डरना?   
सब याद है   
किस-किस ने प्यार किया   
किस-किस ने दुत्कारा   
किस-किस ने छला   
किस-किस ने तोड़ा   
किस-किस को पुकारा   
किस-किस ने मुँह फेरा   
सब के सब   
अब कहानी-से हैं   
अतीत के सभी छाले   
दर्द नहीं देते   
अब सुकून देते हैं   
भीड़ में गुम होने की ख़ुशी देते हैं   
मुक्त होने का एहसास देते हैं   
बेफ़िक्र जीने का सन्देश देते हैं   
फिर किस बात से डरना?   
न खोने को कुछ शेष   
न कुछ पाने की चाह   
अब डर नहीं लगता!   

- जेन्नी शबनम (18. 5. 2021) 
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शनिवार, 1 मई 2021

719. कोरोना (5 कविता)

कोरोना 

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1. 
ओ कोरोना (कोरोना- नवधा-198) 
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ओ कोरोना!   
है कैसा व्यापारी तू   
लाशों का करता व्यापार तू   
और कितना रुलाएगा   
कब तक यूंँ तड़पाएगा   
हिम्मत हार गया संसार   
नतमस्तक सारा संसार   
लाशों से ख़ज़ाना तूने भर लिया   
हर मौत का इल्ज़ाम तूने ले लिया   
पर यम भी अब घबरा रहा   
बार-बार समझा रहा   
तेरे ख़ज़ाने के लिए बचा न स्थान   
मरघट बन गया स्वर्ग का धाम   
ओ कोरोना!   
ढूँढ कोई दूजा संसार।   

2. 
ओ विषाणु 
***
ओ विषाणु!   
सुन, तुझे रक्त चाहिए   
आ, आकर मुझे ले चल!   
मैं रावण-सी बन जाती हूँ   
हर एक साँस मिटने पर   
ढेरों बदन बन उग जाऊँगी   
तू अपनी क्षुधा मिटाते रहना   
पर विनती है   
जीवन वापस दे उन्हें   
जिन्हें तू ले गया छीनकर   
मैं तैयार हूँ   
आ मुझे ले चल!   

3. 
ओ नरभक्षी 
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ओ नरभक्षी!   
हर मन श्मशान बनता जा रहा है   
पर तू शान से भोग करता जा रहा है   
कैसे न काँपते हैं तेरे हाथ   
जब एक-एक साँस के लिए   
तुझसे मिन्नत करते हैं करोड़ों हाथ   
और तेरा खूनी पंजा   
लोगों को तड़पाकर   
नोचते-खसोटते हुए   
अपने मुँह का ग्रास बनाता है   
अब बहुत भोग लगाया तूने   
जा, सदा के लिए अब जा   
अन्तरिक्ष में विलीन हो जा!   

4. 
ओ रक्त पिपासु 
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ओ रक्त पिपासु!   
तेरे खूनी पंजे ने   
हर मन, हर घर पर   
चिपकाए हैं इश्तेहार-   
''तुझे जो भाएगा, तू ले जाएगा   
दीप, शंख, हवन, गो कोरोना गो से   
तू नहीं डरता   
सब तरफ़ लाल रक्त बहाएगा''   
रोते, चीखते, काँपते, छटपटाते लोग   
तुझे बहुत भाते हैं   
पर अब तो रहम कर   
जब कोई न होगा   
तू किसका भोग लगाएगा।   

5. 
ओ पिशाच 
***
ओ पिशाच!   
अब दया कर   
चला जा तू अपने घर   
हम सब हार गए   
तेरी शक्ति मान गए   
ज़ख़्म दिए तूने गहरे सबको   
भला कौन बचा, तू खोजे जिसको   
घर-घर में मातम पसरा   
कौन ताके किसका असरा   
जा, तू चला जा   
अब कभी न आना   
बची-खुची, आधी-अधूरी दुनिया से   
हम काम चला लेंगे   
जिनको खोया उनकी यादों में   
जीवन बिता लेंगे।   

-जेन्नी शबनम (30.4.2021) 
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शनिवार, 24 अप्रैल 2021

718. पतझर का मौसम

पतझर का मौसम 

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पतझर का यह मौसम है   
सूखे पत्तों की भाँति चूर-चूर होकर   
हमारे अपनों को   
एक झटके में वहाँ उड़ाकर ले जा रहा है   
जहाँ से कोई नहीं लौटता। 
   
कितना भी तड़पें   
कितना भी रोएँ   
जाने वाले वापस नहीं आएँगे   
उनसे दोबारा हम मिल न पाएँगे   
काल की गर्दन तक हम पहुँच नहीं पाएँगे   
न उससे छीनकर किसी को लौटा लाएँगे। 
   
सँभालने को कोई नहीं   
सँभलने का कोई इन्तिज़ाम नहीं   
न दुआओं में ताक़त बची   
न मन्नतें कामयाब हो रहीं    
संसार की सारी सम्पदाएँ, सारी संवेदनाएँ   
एक-एककर मृत होती जा रही हैं। 
   
श्मशानों में तब्दील होता जा रहा है खिलखिलाता शहर   
तड़प-तड़पकर, घुट-घुटकर मर रहा नगर   
झीलें रो रही हैं   
ओस की बूँदें सिसक रही हैं   
फूल खिलने से इन्कार कर रहा है   
आसमान का चाँद उगना नहीं चाहता   
रात ही नहीं, दिन में भी अमावस-सा अँधेरा है   
हवा बिलख रही है   
सूरज भी सांत्वना के बोल नहीं बोल पा रहा है। 
   
जाने किसने लगाई है ऐसी नज़र   
लाल किताब भी हो रहा बेअसर  
पतझर का मौसम नहीं बदल रहा   
न ज़रा भी तरस है उसकी नज़रों में   
न ज़रा भी कमज़ोर हो रही हैं उसकी बाहें   
हमरा सब छीनकर   
दु:साहस के साथ हमसे ठट्ठा कर रहा है   
अपनी ताक़त पर अहंकार से हँस रहा है   
अब और कितना बलिदान लेगा? 
  
ओ पतझर! अब तू चला जा   
हमारा हौसला अब टूट रहा है   
मुट्ठी से जीवन फिसल रहा है   
डरे-डरे-से हम, बेज़ार रो रहे हैं   
नियति के आगे अपाहिज हो गए हैं   
हर रोज़ हम ज़रा-ज़रा टूट रहे हैं   
हर रोज़ हम थोड़ा-थोड़ा मर रहे हैं। 
  
पतझर का यह मौसम   
कुछ माह नहीं, साल की सीमाओं से परे जा चुका है   
यह दूसरा साल भी सभी मौसमों पर भारी पड़ रहा है   
पतझर का यह मौसम, जाने कब बीतेगा?   
कब लौटेंगी बची-खुची ज़िन्दगी?   
जिससे लगे कि हम थोड़ा-सा जीवित हैं   

-जेन्नी शबनम (24.4.2021)
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