बुधवार, 20 मई 2009

58. कविता ख़ामोश हो गई है

कविता ख़ामोश हो गई है

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कविता पल-पल बनती है
मन पर शाया होती है,
उतार सकूँ काग़ज़ पर
रोशनाई की पहचान, अब मुझसे नहीं होती
मन की दशा का अब कैसा ज़िक्र
कविता ख़ामोश हो गई है

कविता कैसे लिखूँ ?
सफ़ेद रंगों से, सफ़ेद काग़ज़ पर, शब्द नहीं उतार पाती,
रंगों की भाषा कोई कैसे पहचाने
जब काग़ज़ रंगहीन दिखता हो
किसी के मन तक पहुँचा सकूँ
जाने क्यों, कभी-कभी मुमकिन नहीं होता

एक अनोखी दुनिया में
वक़्त को दफ़न कर आई हूँ,
खो आई हूँ कुछ अपना
जाने क्यों, अब ख़ुद को दग़ा देती हूँ
मन की उपज, वक़्त की कोख में दम तोड़ देती है
ज़िन्दगी और वक़्त का बही-खाता भी वहीं छोड़ आई हूँ

- जेन्नी शबनम (19. 5. 2009)
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