गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

305. जाने कहाँ गई वो लड़की (पुस्तक - 31)

जाने कहाँ गई वो लड़की

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सफ़ेद झालर वाली फ्रॉक पहने
जिसपे लाल-लाल फूल सजे
उछलती-कूदती, जाने कहाँ गई वो लड़की। 
बकरी का पगहा थामे, खेतों के डरेर पर भागती
जाने क्या-क्या सपने बुनती, एक अलग दुनिया उसकी।  
भक्तराज को भकराज कहती
क्योंकि क-त संयुक्त में उसे 'क' दिखता है
उसके अपने तर्क, अजब जिद्दी लड़की। 
बात बनाती ख़ूब, पालथी लगाकर बैठती
क़लम दवात से लिखती रहती, निराली दुनिया उसकी। 
एक रोज़ सुना शहर चली गई, गाँव की ख़ुशबू साथ ले गई
उसके सपने उसकी दुनिया, कहीं खो गई लड़की। 
साँकल की आवाज़, किवाड़ी की चरचराहट
जानती हूँ वो नहीं, पर इंतज़ार रहता अब भी। 
शायद किसी रोज़ धमक पड़े, रस्सी कूदती-कूदती
दही-भात खाने को मचल पड़े, वो चुलबुली लड़की। 
जाने कहाँ गई, वो मानिनी मतवाली
शायद शहर के पत्थरों में चुन दी गई
उछलती-कूदती वो लड़की। 

- जेन्नी शबनम (14. 11. 2011)
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