बुधवार, 28 मार्च 2012

336. तेरे ख़यालों के साथ रहना है

तेरे ख़यालों के साथ रहना है

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खिली-खिली-सी चाँदनी में 
तेरे लम्स की सरगोशी
न कुछ कहना है न कुछ सुनना है
शब भर आज तेरे ख़यालों के साथ रहना है।  

तेरी साँसों को छूकर गई हवा
मेरी साँसों में घुलती रही
पल में जीना है पल में मरना है
मुद्दतों का फ़ासला पल में तय करना है।  

तेरे होठों की मुस्कुराहट में
तेरी आँखों की शरारत में
कभी खिलना है कभी तिरना है
अपने सीने में तेरी यादों को भरना है।  

नस-नस में मचलती है
तेरे आने की जो ख़ुशबू है
कभी बहकना है कभी थमना है
मेरे आशियाँ में बहारों को रुकना है।  

तू अपनी नज़र से न देख
मेरे ज़ीस्त की दुश्वारियाँ
ज़ख़्म बहुत गहरा है बहुत सहना है
'शब' के दिल में हर दर्द को बसना है।  

- जेन्नी शबनम (26. 3. 2012)
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सोमवार, 26 मार्च 2012

335. शब्द-महिमा (शब्द पर 10 ताँका)

शब्द-महिमा
(शब्द पर 10 ताँका)

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1.
प्रेम-चाशनी
शब्द को पका कर
सबको बाँटो,
सब छूट जाएगा
ये याद दिलाएगा !

2.
शब्दों ने तोड़ी
संबंधों की मर्यादा
रिश्ता भी टूटा,
यत्न से लगी गाँठ
मन न जुड़ पाया !

3.
तुमसे जाना
शब्दों की वाचालता,
मूक-बधिर
बस एक उपाय
मन यही सुझाय !

4.
शब्द-जाल ने
बहुत उलझाया
देश की जनता को,
अब नेता को जाना-
कितना भरमाया !

5.
शब्द-महिमा
ऋषियों ने थी मानी,
दिया सन्देश
ग्रंथों में उपदेश
शब्द नहीं अशेष !

6.
सरल शब्द
सहज अभिव्यक्ति
भाव गंभीर,
उत्तेजित भाषण
खरोंच की लकीर !

7.
प्रेम औ पीर
अपने औ पराये
शब्द के खेल,
मन के द्वार खोलो
शब्द तौलो तो बोलो !

8.
शब्दों के शूल
कर देते छलनी
कोमल मन,
निरर्थक जतन
अपने होते दूर !

9.
अपार शब्द
कराहते ही रहे,
कौन समझे
निहित भाषा-भाव
नासमझ इंसान !

10.
बिना शब्द के
अभिव्यक्ति कठिन
सबने माना,
मूक सम्प्रेषण है
बिना शब्दों की भाषा !

- जेन्नी शबनम ( मार्च 16, 2012)

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रविवार, 25 मार्च 2012

334. परवाह (क्षणिका)

परवाह

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कई बार प्रेम के रिश्ते फाँस-से चुभते हैं
इसलिए नहीं कि रिश्ते ने दर्द दिया
इसलिए कि रिश्ते ने परवाह नहीं की
और प्रेम की आधारशिला परवाह होती है। 

- जेन्नी शबनम (22. 3. 2012)
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बुधवार, 21 मार्च 2012

333. कवच

कवच

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सच ही कहते हो
हम सभी का अपना-अपना कवच है
जिसका निर्माण हम ख़ुद करते हैं
स्वेच्छा से
जिसके भीतर हम ख़ुद को क़ैद किए होते हैं
आदत से
फिर धीरे-धीरे ये कवच
पहचान बन जाती है
और उस पहचान के साथ
स्वयं का मान-अपमान जुड़ जाता है
शायद इस कवच के बाहर
हमारी दुनिया कुछ भी नही
किसी सुरक्षा के घेरे में
बेहिचक जोख़िम उठाना कठिन नहीं
क्योंकि यह पहचान होती है
एक उद्घोष की तरह-
आओ और मुझे परखो
उसी तराज़ू पर तौलो
जिस पर खरे होने की
तमाम गुंजाइश है। 

- जेन्नी शबनम (21. 3. 2012)
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शनिवार, 17 मार्च 2012

332. वक़्त की आख़िरी गठरी (क्षणिका)

वक़्त की आख़िरी गठरी

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लफ़्ज़ की सरगोशी, जिस्म की मदहोशी
यूँ जैसे 
साँसों की रफ़्तार घटती रही
एक-एक को चुनकर, हर एक को तोड़ती रही
सपनों की गिनती फिर भी न ख़त्म हुई
ज़िद की बात नहीं, न चाहतों की बात है
पहरों में घिरी रही 'शब' की हर पहर-घड़ी
मलाल कुछ इस क़दर जैसे
मुट्ठी में कसती गई वक़्त की आख़िरी गठरी। 

- जेन्नी शबनम (16. 3. 2012)
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गुरुवार, 15 मार्च 2012

331. चुप सी गुफ़्तगू

चुप सी गुफ़्तगू

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एक चुप-सी दुपहरी में
एक चुप-सी गुफ़्तगू हुई
न तख्तों-ताज 
न मसर्रत
न सुख़नवर की बात हुई
कफ़स में क़ैद संगदिल हमसुखन
और महफ़िल सजाने की बात हुई
बंद दरीचे में
नफ़स-नफ़स मुंतज़िर
और फ़लक पाने की बात हुई
साथ-साथ चलते रहे
क़ुर्बतों के ख़्वाब देखते रहे
मगर फ़ासले बढ़ाने की बात हुई
एक चुप-सी दोपहरी में
एक चुप-सी गुफ़्तगू हुई। 
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मसर्रत - आनंद
नफ़स - साँस
मुंतजिर - प्रतीक्षित
कुर्बतों - नज़दीकी
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- जेन्नी शबनम (14. 3. 2012)
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मंगलवार, 13 मार्च 2012

330. तुम क्या जानो (तुकांत)

तुम क्या जानो

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हिज्र की रातें तुम क्या जानो
वस्ल की बातें तुम क्या जानो।  

थी लिखी कहानी जीत की हमने
क्यों मिल गई मातें तुम क्या जानो। 

था हाथ जो थामा क्या था मन में
जो पाई घातें तुम क्या जानो। 

न कोई रिश्ता यही है रिश्ता
ये रूह के नाते तुम क्या जानो। 

तय किए सब फ़ासले वक़्त के
क्यों हारी हसरतें तुम क्या जानो। 

'शब' की आज़माइश जाने कब तक
उसकी मन्नतें तुम क्या जानो। 

- जेन्नी शबनम (11. 3. 2012)
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गुरुवार, 8 मार्च 2012

329. मैं स्त्री हो गई (पुस्तक - 77)

मैं स्त्री हो गई

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विजातीय से प्रेम किया
अपनी जात से मुझे निष्काषित कर दिया गया,
मैं कुलटा हो गई;
अपने धर्म के बाहर प्रेम किया
अधर्मी घोषित कर मुझे बेदख़ल कर दिया गया,
मैं अपवित्र हो गई;
सजातीय से प्रेम किया
रिश्तों की मुहर लगा मुझे बंदी बना दिया गया,
मैं पापी हो गई;
किसी ने, न कहा, न समझा
मैंने तो एक पुरुष से
बस प्रेम किया
और मैं स्त्री हो गई। 

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2012)
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सोमवार, 5 मार्च 2012

328. होली आई रे (होली पर 10 हाइकु) पुस्तक - 21, 22

होली आई रे
(होली पर 10 हाइकु)

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1. 
रंग-अबीर
मन हुआ अधीर
होली खेलो रे

2. 
फगुआ-पर्व
घर पाहुन आए 
मन चंचल

3. 
भंग-तरंग
इन्द्रधनुषी रंग
सब तरफ़

4. 
फगुआ मन
अंग-अंग में रंग
होली आई रे

5. 
होली त्योहार 
भेद-भाव मिटाए
मन मिलाए

6. 
अंग-अंग में
फगुनाहट छाए 
मनवा नाचे

7. 
घर है सूना
परदेसी सजना
होली रुलाए

8. 
कैसे मनाएँ 
है मन तड़पाए
पी बिन होली

9. 
तुम्हारे बिना
कैसे मनाऊँ होली
न जाओ पिया

10. 
बैरन होली
क्यों पिया बिन आए 
तीर चुभाए

- जेन्नी शबनम (5. 3. 2012)
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शनिवार, 3 मार्च 2012

327. ऐसा वास्ता रखना (तुकांत)

ऐसा वास्ता रखना

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हमारे दरम्यान इतना फ़ासला रखना
बसर हो सकें रिश्ते ऐसा वास्ता रखना।  

लरजते आँसुओं के शबनमी बयाँ
दोस्तों की महफ़िल से बचा रखना।  

काँटों से बचाके दामन हम आएँगे  
वस्ल की शाम अधूरी बहला रखना। 

कारवाँ थम जाए जो तूफ़ान से कहीं
ख़यालों की एक बस्ती सजा रखना। 

बेमुरव्वत दुनिया की फ़िक्र कौन करे
मेरे वास्ते ज़िन्दगी का आसरा रखना। 

सवाल पूछ ग़ैरों के सामने शर्मिंदा न करना
मेरे ज़ीस्त की नादानियों को छिपा रखना।  

'शब' को मिल जाए अँधेरों से निज़ात
दिल में एक चराग तुम जला रखना। 

- जेन्नी शबनम (3.3. 2012)
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