सोमवार, 17 जुलाई 2017

552. मुल्कों की रीत है (तुकांत)

मुल्कों की रीत है  

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कैसा अजब सियासी खेल है, होती मात न जीत है
नफ़रत का कारोबार करना, हर मुल्कों की रीत है। 

मज़हब व भूख पर, टिका हुआ सारा दारोमदार है
ग़ैरों की चीख-कराह से, रचता ज़ेहादी गीत है।   

ज़ेहन में हिंसा भरा, मानव बना फौलादी मशीन  
दहशत की ये धुन बजाते, दानव का यह संगीत है।   

संग लड़े जंगे-आज़ादी, भाई-चारा याद नहीं  
एक-दूसरे को मार-मिटाना, बची इतनी प्रीत है  

हर इंसान में दौड़ता लाल लहू, कैसे करें फ़र्क  
यहाँ अपना पराया कोई नहीं, 'शब' का सब मीत है।   

- जेन्नी शबनम (17. 7. 2017)  
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